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अर्ज़ है.... किताबों से ज़्यादा तो, हम उन्हें पढ़

अर्ज़ है....

किताबों से ज़्यादा तो, हम उन्हें पढ़ते हैं इसलिए हम उन्हें, सुबह-ओ-शाम लिखते हैं

बुलाते हैं उन्हें रोज़ ख़्वाब-ओ-ख़यालों में और इश्क़-ए-स्याही से उन्हें, कलाम लिखते है

अक्सर छेड़ते हैं, उनकी वफ़ाओं का ज़िक्र अपने लबों पर हरदम, उनका नाम लिखते हैं

कितनी संजीदगी, कितनी सादगी है उनमें के हम उन्हें ख़ास नहीं, बल्कि आम लिखते हैं

कितना मुख्तलिफ़ हैं यारों, वो औरों से के उनके लिए हम, नज़्म-ए-तमाम लिखते हैं..!!

©Kanchan Agrahari
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