आज मध्य पथ मिली प्रेमिका, चिर स्मित लिए, वो मृगनयनीका, सौंदर्यता की पराकाष्ठा, करती जब मलय वन विहार, हर भुजंग अवलुंठन को आतुर, करती जब अंगविक्षेप सुकुमार। पराग जिसके चरण रज कन, प्रसून पल्लव जिसे सहलाते है, दल अलियों का, या अप्सराओं का, आकर यहीं भरमाते है। हे मृगनयनी! हे वल्लरिका! हे निशीथ की चंद्रिका, नवल गान स्व मृदु कंठ से, गाओ कोई प्रेम गीत कोकिला। अर्श हृदय से..