चितवन में है धरी चित्र सी, जीवन उमंग भरती तरंग सी, यूँ रूठकर मुझको सताती, चुपके से सागर भर जाती। तिमिर घना हो अमावसी सी, उजियारा दे पूरनमासी सी, हृदय पटल पर ज्ञान चक्षु सी, यूँ प्रेरक बुद्धि भर जाती, खामोशी हो प्रलयकाल सी, भरा प्रेम है सृष्टि सृजन सी, मन मंदिर को पावन करती, देवी सी प्रतिमा हो जाती, छवि हृदय में है केतन सी, यूँ पहचान बनीं श्यामल सी, नूपुर ध्वनि सी आह्लादित करती, पाजेबों से संगीत निकलती, "राज" प्रेम है सावन बसंत सी, यूँ "प्रिय" है कृष्ण की राधा सी, है रविकर-पुंज सी ये चलती, नित नवीन ऊर्जा को भरती, कल-कल करती नदियों सी, होती आच्छादित यूँ नीरव सी, यूँ कोयल सी कलरव करती, मधुकर सी शीतल मधु भरती, चमक रूप की है चाँद सी, है काया सुंदर सोने सी, हिरण चाल सी वो चलती, कोमल पुष्प सी वो खिलती, ©राजेश कुशवाहा -------प्रेयसी-------- चितवन में है धरी चित्र सी, जीवन उमंग भरती तरंग सी, यूँ रूठकर मुझको सताती, चुपके से सागर भर जाती। तिमिर घना हो अमावसी सी, उजियारा दे पूरनमासी सी,