पसरी हुई है धुंध घनी सी, पथ सारा निर्जन है। दीख रहे कुछ वृक्ष सामने, एक पथिक का गमन है।। उस वन के ही बीच, बनाया होगा उसने बँगला। कहीं हिमालय की गोदी में, बसता है वह सरला।। सन्ध्या ढलने चली तभी तो, गेह उसे जाना है। कार्य रहा होगा पड़ोस में, वह करके आना है।। इसीलिए निश्चिंत भाव से, वह चले जाता है। ऊबड़-खाबड़ पथ में कोई, वाहन भी नहीं आता है।। विद्युत की भी नहीं वयवस्था, घरों में दीप जलाकर। भोजन पकाते होंगे सारे, चूल्हे में अग्नि बलाकर।। मैंने भी कश्मीर में झेला, हर कोई बड़ा मगन था। किन्तु वर्ष उन्नीस सौ पिचासी, वह सैनिक जीवन था।। नेति। धन्यवाद। ©bhishma pratap singh #अपना_सैनिक_जीवन#हिन्दी कविता #भीष्म प्रताप सिंह#प्रेरक कहानी #काव्य संकलन#findyourself #October creator