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ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती कुछ सुनूं मैं तेरी ज़

ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी ज़ुबानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी रात भी नींद भी
ख़ल्क़ क्या क्या मुझे नहीं कहती
कुछ सुनूं मैं तेरी ज़ुबानी भी
पास रहना किसी का रात की रात
मेहमानी भी, मेज़बानी भी रात भी नींद भी

रात भी नींद भी