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संवाद... कृष्ण का , कृष्ण से | केशवी ! देखो न मैं

संवाद...
कृष्ण का ,
कृष्ण से | केशवी !  देखो न मैं आज फिर इस कलयुग में भी इस यमुना के तीर पर लगे कदम्ब के वृक्ष तले सबसे छुपकर आ गया हूं अपना महंगा वाला i-phone मोबाइल लेकर ..यहां पहले जैसा कुछ नहीं, ना तुम, ना वो गोकुल और ना ही इन आज के युवानों में वैसा प्रेम...
इस मोबाइल के युग में भी जहां कोई कभी भी कुछ भी देख सकता है, मुझे फिर भी तुम्हें देखने की चाह है...मैं जो अपनी एक भृकुटी हिलाऊं तो पहुंच जाऊं तुम्हारे पास...पर नहीं आऊँगा मैं तुम्हारे पास प्रिय...मैं तुम्हें इस कलयुग के एक साधारण पुरुष की तरह ही प्रेम करना चाहता हूँ ...बुआ कुंती ने मांगे थे न असंख्य दुःख मुझसे ताकि वो रह सके मेरे पास, उसी तरह मैंने भी माँगा है अपने आराध्य महादेव से तुम्हारा प्रेम~विरह क्योंकि इसी तरह से इसी विरह में अग्निरत रह मैं पाता रहूँगा तुम्हारा सानिध्य...

हे श्यामा ! सबको लगता है कि मैंने तुम्हें विरह दिया, नहीं जानता कोई भी कि समान विरह में मैं भी हूं...सबको लगता है की मैं तुम्हें छोड़ 16108 पटरानियों के साथ हूँ...पर नहीं जानता कोई भी इन सभी के विशाल कक्षों को छोड़ एक कक्ष मेरे ह्रदय में ऐसा भी है जहां तुम विराजमान हो...तुम पटरानी न सही, महारानी ना सही और कोई रानी भी नहीं पर तुम मेरे संग मेरी हृदयवासिनी हो...

हे माधवी ! सब मानते हैं की मैं हरि हूँ और हर लेता हूँ सबकी पीड़ा...सब चले आते हैं मेरे पास अपनी अपनी पीड़ा सुनाने...किसी को यह विचार भी नहीं आता कि मैं भी पीड़ा में हो सकता हूँ...ईश्वर हूँ तो क्या हुआ, पीड़ा तो मुझे भी होती है...कितने स्वार्थी हैं सब...
केवल माधवी तुम ! तुम समझती हो कि मैं भी पीड़ा में हो सकता हूँ...और तुम ! मुझे मालूम हैं कि कहीं सुदूर बैठी मेरे लिए जाने कितनी प्राथनाएं करती रहती हो...कोई भी ये न जाने कि मेरी पीड़ा तो हरने वाली तुम हो...तुम्हारे  स्मरण मात्र से ही मेरा रोम रोम पीड़ा-रहित हो जाता है...
संवाद...
कृष्ण का ,
कृष्ण से | केशवी !  देखो न मैं आज फिर इस कलयुग में भी इस यमुना के तीर पर लगे कदम्ब के वृक्ष तले सबसे छुपकर आ गया हूं अपना महंगा वाला i-phone मोबाइल लेकर ..यहां पहले जैसा कुछ नहीं, ना तुम, ना वो गोकुल और ना ही इन आज के युवानों में वैसा प्रेम...
इस मोबाइल के युग में भी जहां कोई कभी भी कुछ भी देख सकता है, मुझे फिर भी तुम्हें देखने की चाह है...मैं जो अपनी एक भृकुटी हिलाऊं तो पहुंच जाऊं तुम्हारे पास...पर नहीं आऊँगा मैं तुम्हारे पास प्रिय...मैं तुम्हें इस कलयुग के एक साधारण पुरुष की तरह ही प्रेम करना चाहता हूँ ...बुआ कुंती ने मांगे थे न असंख्य दुःख मुझसे ताकि वो रह सके मेरे पास, उसी तरह मैंने भी माँगा है अपने आराध्य महादेव से तुम्हारा प्रेम~विरह क्योंकि इसी तरह से इसी विरह में अग्निरत रह मैं पाता रहूँगा तुम्हारा सानिध्य...

हे श्यामा ! सबको लगता है कि मैंने तुम्हें विरह दिया, नहीं जानता कोई भी कि समान विरह में मैं भी हूं...सबको लगता है की मैं तुम्हें छोड़ 16108 पटरानियों के साथ हूँ...पर नहीं जानता कोई भी इन सभी के विशाल कक्षों को छोड़ एक कक्ष मेरे ह्रदय में ऐसा भी है जहां तुम विराजमान हो...तुम पटरानी न सही, महारानी ना सही और कोई रानी भी नहीं पर तुम मेरे संग मेरी हृदयवासिनी हो...

हे माधवी ! सब मानते हैं की मैं हरि हूँ और हर लेता हूँ सबकी पीड़ा...सब चले आते हैं मेरे पास अपनी अपनी पीड़ा सुनाने...किसी को यह विचार भी नहीं आता कि मैं भी पीड़ा में हो सकता हूँ...ईश्वर हूँ तो क्या हुआ, पीड़ा तो मुझे भी होती है...कितने स्वार्थी हैं सब...
केवल माधवी तुम ! तुम समझती हो कि मैं भी पीड़ा में हो सकता हूँ...और तुम ! मुझे मालूम हैं कि कहीं सुदूर बैठी मेरे लिए जाने कितनी प्राथनाएं करती रहती हो...कोई भी ये न जाने कि मेरी पीड़ा तो हरने वाली तुम हो...तुम्हारे  स्मरण मात्र से ही मेरा रोम रोम पीड़ा-रहित हो जाता है...