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काश ये सब झूठ होता, कोई हिन्दू न मुसलमाँ होता अम

काश ये सब झूठ होता, कोई हिन्दू न मुसलमाँ होता 

अम्न के फूल महकते हर-सू 
हर नगर एक गुलिस्ताँ होता 

धर्म के नाम पे होते न फ़साद 
फ़ित्ना-ओ-शर का न तूफ़ाँ होता 

ज़िंदगी बनती न वीरान खंडर 
ख़ून इंसाँ का न अर्ज़ां होता 

शहर की रूह न होती घायल 
इतना खूँ-ख़्वार न इंसाँ होता 

इस तरह बनता न हैवान बशर 
अम्न मज़हब पे न क़ुर्बांन होता 

ज़ीस्त रह जाती न मक़्तल बन कर 
प्यार का बाग़ न वीराँ होता

©Tarique Usmani #Alas
काश ये सब झूठ होता, कोई हिन्दू न मुसलमाँ होता 

अम्न के फूल महकते हर-सू 
हर नगर एक गुलिस्ताँ होता 

धर्म के नाम पे होते न फ़साद 
फ़ित्ना-ओ-शर का न तूफ़ाँ होता 

ज़िंदगी बनती न वीरान खंडर 
ख़ून इंसाँ का न अर्ज़ां होता 

शहर की रूह न होती घायल 
इतना खूँ-ख़्वार न इंसाँ होता 

इस तरह बनता न हैवान बशर 
अम्न मज़हब पे न क़ुर्बांन होता 

ज़ीस्त रह जाती न मक़्तल बन कर 
प्यार का बाग़ न वीराँ होता

©Tarique Usmani #Alas