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बहुत मज़लूम था वो - मैं ज़ुबान दे बैठी, सज़ा मुकर्रर

बहुत मज़लूम था वो - मैं ज़ुबान दे बैठी,
सज़ा मुकर्रर थी - फिर भी इम्तहान दे बैठी।

न आया चाँद न ही - चाँदनी ने दर देखा,
मिलके जुगनू को - रौशनी का काम दे बैठी।

न मंज़िल थी कोई - न ही नया शहर देखा,
अंजान मुसाफ़िर को - खुद की लगाम दे बैठी।

न देगा साथ कोई ताउम्र - ये मालूम था,
फिर भी उसके ख्वाबों को मैं - अपनी शाम दे बैठी।

न तड़पा दिल - न ही, आँखों से आँसू निकले,
उसकी बिदाई को मैं - अर्थी का नाम दे बैठी।

सुकून मुझको मिले - न मिले मेरी किस्मत,
तुझे आना ही पड़ेगा - ऐसा खुद को गुमान दे बैठी।

बहुत मज़लूम था वो - मैं ज़ुबान दे बैठी ,
सज़ा मुकर्रर थी फिर भी - इम्तहान दे बैठी।।

©Neel
  इम्तहान 🍁
archanasingh1688

Neel

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इम्तहान 🍁 #कविता

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