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"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 'घराने' , मुरेड़ पर कि ज़

"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 
'घराने' ,
मुरेड़ पर
कि ज़मीर बिक गया 
उन इज़्ज़तदारों का ,
उसके 'कोठे' की चौखट पर"

•(caption)• माँ, बहन, बेटी, सखी, प्रेयसी, पत्नी और न जाने कितने रूप हैं स्त्री के । प्रत्येक रूप में वह सृष्टि की और समाज की पूरक है ,कहने भर मात्र ही सही, पर प्रत्येक वर्ग में सम्मानित है ।वो अलग बात है कि साहित्य व यथार्थ में ज़मीन आसमान का अंतर होता है । 
प्राचीन भारत हो या आधुनिक , समय बदला , संस्कृतियां बदलीं , वेश भूषाएँ बदलीं , सीधे शब्दों में कहें तो बहुत कुछ बदल गया । परिवर्तन की आबो हवा में वो दम था कि इन आइनों से गर्दिश मिटा सकें , कुछ हद तक सफल भी हुईं , पर कहते हैं न कि कुछ तत्व ऐसे हैं जो आदतों में शुमार तो कुछ परंपरा बन जाते हैं ।
परिवर्तन के दौर ने सब कुछ बदल दिया पर न बदली तो बस एक धारणा ,"स्त्रियां कुल की मर्यादा, मान और सम्मान होती हैं तथा मर्यादा को मर्यादा में रहना ही शोभा देता है ", निसंदेह उचित है यह विचार क्योंकि बेड़ियों में ही सही, पर सम्मानित हैं स्त्रियां। व्यवहार में स्थिति प्रतिकूल हो सकती है क्योंकि मानव बुद्धि का अनुमान लगाना ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि से भी विषम कार्य है , या यूं कहें कि असंभव है।

"स्त्रियां किसी कुल की सम्मान सूचक वस्तु हैं, जी हां वस्तु हैं।" यदि "सम्मान" शब्द का प्रयोग न हुआ होता न , तो वह भी स्त्री कहलाती , एक सम्मानित स्त्री , जिसे सभी उसके नाम से नहीं अपितु सभ्य समाज मे "वैश्या" संबोधित करते हैं। विरोधाभास तो देखिए , जिसकी कोई इज़्ज़त नहीं न , उसके दरवाजे न जाने कितने इज़्ज़तदार अपने ज़मीर का नज़राना प्रस्तुत करते हैं । 

"विष है वह !"
"वैश्या है!"
"वो लाज़ ओढ़े बैठी रही अपने 
'घराने' ,
मुरेड़ पर
कि ज़मीर बिक गया 
उन इज़्ज़तदारों का ,
उसके 'कोठे' की चौखट पर"

•(caption)• माँ, बहन, बेटी, सखी, प्रेयसी, पत्नी और न जाने कितने रूप हैं स्त्री के । प्रत्येक रूप में वह सृष्टि की और समाज की पूरक है ,कहने भर मात्र ही सही, पर प्रत्येक वर्ग में सम्मानित है ।वो अलग बात है कि साहित्य व यथार्थ में ज़मीन आसमान का अंतर होता है । 
प्राचीन भारत हो या आधुनिक , समय बदला , संस्कृतियां बदलीं , वेश भूषाएँ बदलीं , सीधे शब्दों में कहें तो बहुत कुछ बदल गया । परिवर्तन की आबो हवा में वो दम था कि इन आइनों से गर्दिश मिटा सकें , कुछ हद तक सफल भी हुईं , पर कहते हैं न कि कुछ तत्व ऐसे हैं जो आदतों में शुमार तो कुछ परंपरा बन जाते हैं ।
परिवर्तन के दौर ने सब कुछ बदल दिया पर न बदली तो बस एक धारणा ,"स्त्रियां कुल की मर्यादा, मान और सम्मान होती हैं तथा मर्यादा को मर्यादा में रहना ही शोभा देता है ", निसंदेह उचित है यह विचार क्योंकि बेड़ियों में ही सही, पर सम्मानित हैं स्त्रियां। व्यवहार में स्थिति प्रतिकूल हो सकती है क्योंकि मानव बुद्धि का अनुमान लगाना ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि से भी विषम कार्य है , या यूं कहें कि असंभव है।

"स्त्रियां किसी कुल की सम्मान सूचक वस्तु हैं, जी हां वस्तु हैं।" यदि "सम्मान" शब्द का प्रयोग न हुआ होता न , तो वह भी स्त्री कहलाती , एक सम्मानित स्त्री , जिसे सभी उसके नाम से नहीं अपितु सभ्य समाज मे "वैश्या" संबोधित करते हैं। विरोधाभास तो देखिए , जिसकी कोई इज़्ज़त नहीं न , उसके दरवाजे न जाने कितने इज़्ज़तदार अपने ज़मीर का नज़राना प्रस्तुत करते हैं । 

"विष है वह !"
"वैश्या है!"