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धरा की लाज आँखों में बस हमी ने बसाया हैं चुराकर सा

धरा की लाज आँखों में
बस हमी ने बसाया हैं
चुराकर सारी बेदर्दी
सभी को प्यार लुटाया हैं
कही बचपन कही जवानी कही गुजरता बुढ़ापा
समानता का अधिकार कभी क्या हमनें पाया हैं?

©कवि: अंजान
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