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इक दिन गुज़रा फिर से कार-गुज़ारी में हमने ख़ुद को ख़ुद

इक दिन गुज़रा फिर से कार-गुज़ारी में
हमने ख़ुद को ख़ुद पाया अय्यारी में

भीड़ भरे बाग़ों में डर तो लगता है
कुछ पौधे रोपे हैं दिल की क्यारी में

बाम-ए-दर पर एक निशानी लटकी है
उस पर तेरा नाम लिखा होशियारी में

आँखों से तेज़ाब उबलता रहता है
अश्कों से ख़ुद को है जलाया यारी में

रिसते ज़ख्मों से संगीत निचोड़ा है
ग़म लिखते हैं हम अब यूँ लयकारी में

©गौरव आनन्द श्रीवास्तव
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