#गुंज बारिश की बुँदो की तरह हॊती हैं कुछ ख्वाहिशे जिन्हें पाना चाहता है आदमी हाथों को बढ़ाकर पकड़ लेता है बुन्दो को मगर हाथ भिंगोकर निकल जाती है बुन्दे कहाँ कभी हाथों मे आती है.... यही इक पल अपना सा होता है पाने या खोने के मध्यावधि मे हथेलियों की नमी एहसास हैं उसके होनॆ का... बुन्दो का पानी बन खो जाने का.... फ़िर फ़िर हाथ बढ़ाता है आदमी या चुप चाप बैठे देखा करता है बुन्दो का धरती पर गिरकर अपना वजुद खो देने का अनवरत ये सिलसिला चलता रहता है..... आसमान आकुल हो धरती को आलिंगनबद्ध करता हैं..... #गुंज बारिश की बुँदो की तरह हॊती हैं कुछ ख्वाहिशे जिन्हें पाना चाहता है आदमी हाथों को बढ़ाकर पकड़ लेता है बुन्दो को