वो इंसान जिसकी छाया में बीता बचपन मेरा, चूमने जाता हूँ तो उनका अक़्स बड़ा होता जाता है। ऊपर से नारियल जैसे सख़्त तो अंदर से ख़ालिश जज़्बाती, ऐसा अबूझ दर्शन बचपन में कहाँ समझ आता है। आज तक याद है वो बचपन मे नज़ला-बुख़ार होना, हम तो लेटे रहते थे माँ की गोद मे उनके मुँह में निवाला तक न जाता है। जिनकी कमाई से भोगें है कुंवरों जैसे सुख, ख़ुद कमाते है लाखों लेकिन लगता है अब बस पेट भर पाता है। मेरे लिए घर की छत और पिता एक जैसे है, दोनों न हो तो "आशु" बेसहारा सा नज़र आता है। 🎀 Challenge-241 #collabwithकोराकाग़ज़ 💖 Happy Fathers Day 💖 🎀 यह व्यक्तिगत रचना वाला विषय है। 🎀 कृपया अपनी रचना का Font छोटा रखिए ऐसा करने से वालपेपर खराब नहीं लगता और रचना भी अच्छी दिखती है।