Nojoto: Largest Storytelling Platform

मनुष्य स्वभाव से प्रमादी है आलसी है। उसे कुछ नहीं

मनुष्य स्वभाव से प्रमादी है आलसी है।
उसे कुछ नहीं करना पडे तो वह बहुत खुश है।
करने की बात हो तो माथा ठनकता है। उस पर भी यदि अरूचि कर कार्य करना पडे तो बडबडाता रहता है। कराने वाले को साथ-साथ कोसता भी रहता है।
स्वभाव के इसी कारण से वह कर्म से बचना भी चाहता है और सब कुछ पाना 
भी चाहता है।
इसी चक्कर में लोग भाग्यवादी बन जाते हैं।
भाग्य तो कर्म के साथ बनता है।
बिना कर्म के पिछले कर्मो के फल ही भोग सकता है।
वर्तमान में कुछ नहीं किया तो किसके फल मिलेंगे भविष्य में! 
तब भाग्य को दोष भी देंगे तो क्या मिल जाएगा।
इसी तरह कुछ लोग अनुष्ठान जुआ-सट्टा आदि के सहारे कुछ पा लेने का प्रयास करते हैं।
वैसे भी जिन्दगी से बडा जुआ और हो भी क्या सकता है।
इसी आलस्य के कारण व्यक्ति स्वयं के विकास के लिए भी कार्य नहीं करता।
उसके बजाए दूसरों की नकल करना अच्छा लगता है।
नकल सफलता की गारण्टी कैसे बन सकती है।
यदि मैं महावीर की ईसा मसीह की नकल करूं तो क्या वैसा बना जा सकता है । आज तो हम नकल के बडे दौर से गुजर रहे हैं। खाना-पीना, पहनावा, जीवन शैली सब कुछ तो नकल के हवाले कर चुके और किए भी जा रहे हैं। विकसित दिखाई देना चाहते हैं। क्या हमारा शरीर और व्यक्तित्व भी विकसित हो पाएगा, नहीं मालूम। व्यक्तिगत विकास और जीवन के मूल मंत्र इस नकल की भेंट चढते जा रहे हैं। स्वयं के विकास के लिए व्यक्ति तपना नहीं चाहता। प्रयोग करना नहीं चाहता। स्वयं को जानने-समझने की ललक छूट रही है। फिर नकल से विकास कैसे संभव है। मैं किसी को समझूं उससे पहले स्वयं को समझूं। वरना लागू किस पर करूंगा। नकल में सारा ध्यान दूसरे पर रहता है, स्वयं पर नहीं रहता।
नकल का अर्थ है, जो मैं नहीं हूं। जो हूं, उसका तो विकास किया जा सकता है। जो नहीं हूं, उसका विकास कैसे संभव है। बीज के अनुरूप ही तो वृक्ष विकसित होगा, पुष्पित-पल्लवित होगा। वैसे ही फल आएंगे। पडौस के पेड वाले फल कैसे लग सकते हैंक् 
बाजार में कोई चीज नकली निकल जाए, तो हम व्यापारी के गले पड जाते हैं। हमारी जीवन शैली स्वयं नकली हो जाए, तब किसके गले पडेंगे। हो भी यही रहा है। न, बच्चों को इसका पता है, न ही मां-बाप को। मां-बाप ने जिसको जन्म दिया, वह किसी और की तरह ही जी रहा है और उनको इसकी अनुभूति नहीं होती। पैदा बेटी हुई, बडी बेटे जैसी हो रही है। अच्छी पत्नी और अच्छी मां उसमें कैसे विकसित होगी। किस प्रकार के संस्कार संतान को दे सके गी। क्या पति के साथ लडका बनकर जी सकेगीक् क्या प्रेम और सम्मान दे सकेगी अथवा केवल अघिकारों के तर्क के साथ जीती रहेगीक् तब उसको सम्मान और मिठास कहां से मिल पाएगा। यह शुद्ध नकल का उदाहरण तो अनेक शिक्षित और सम्पन्न परिवारों में दिखाई देने लगा है। विवाह-विच्छेद अनिवार्य हो जाएगा। मां-बाप का यही आशीर्वाद का विकसित रूप होगा।
जो महत्वपूर्ण तथ्य है कि व्यक्ति जब किसी की नकल करता है, तब उसका अपना आत्मा दब जाता है। जो आत्मा इस शरीर में जीने के लिए आया है, वह जी ही नहीं पाता। उसके सामने एक द्वन्द्व बना ही रहता है कि किस तरह से अपना जीवन जिया जाए। बुद्धि का अहंकार मन की इच्छा को ही आत्मा मानकर जीता रहता है। वह किसी अन्य आत्मा का बनकर जी नहीं सकता। इसमें वह भी मर जाता है और दूसरे के स्वरूप को भी भ्रष्ट कर देता है। क्योंकि वैसा का वैसा बन नहीं सकता। आज हर सम्प्रदाय अपने-अपने नियमों में अनुयायियों को बांधने का प्रयास करता है। अपने-अपने आदर्श पुरूषों के उपदेशों से वैसा ही बनाने का प्रयास करता है। वैसा कोई बन नहीं सकता। तब आत्मा प्रतिहिंसा पर उतर जाता है। कट्टरता दिखाई देने लगती है। प्रतिहिंसा की अभिव्यक्ति ही है।
व्यक्ति रामायण पढ सकता है, राम नहीं बन सकता। राम क्यों आदर्श बने, इस बात को समझने की कोशिश कर सकता है। उन सूत्रों को काम लेकर स्वयं आगे का मार्ग बना सकता है। महापुरूषों की भी नकल नहीं भी जा सकती। वे जैसे थे, वैसे अपनी परिस्थितियों में बडे हो गए। उनको समझकर हम अपनी परिस्थितियों में बडे हो सकें। यही इसका अभिप्राय होना चाहिए। व्यक्ति दस साल के लिए महावीर या जीसस बनने के लिए ध्यान में बैठ जाएगा, तब वह स्वयं कहां खो चुका होगा, इसका अनुमान लगा सकते हैं। व्यक्ति स्वयं को ही आत्मसात कर सकता है। अन्य किसी भी आत्मा को आत्मसात नहीं किया जा सकता। तब हमारे पास एक ही विकल्प बचता है। खुला मस्तिष्क। बिना किसी पूर्वाग्रह के हर महापुरूष के जीवन क्रम को समझने का प्रयास किया जाए। हम मार्ग में यदि “सही और गलत” के भेद में पड गए, तब भी आगे नहीं बढ सकेंगे। हमें सारे चश्मे उतार कर देखना पडेगा। प्रकृति में भी कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता। बस होता है। एक कर्म होता है और उसी के अनुरूप उसका फल होता है। न अच्छा होता है, न बुरा होता है। यह तो हमारी जीवन के प्रति अवधारणाओं के कारण होता है। हम जब किसी की कही हुई बात को मानकर जीने लग जाते हैं, तब सही और गलत दिखाई पडने लग जाते हैं। जो जैसा होता है, उसे उसी रूप में देखने की हमारी क्षमता समाप्त हो जाती है। जिसे हम अच्छा मानते हैं, उसमें कोई कमी दिखाई नहीं देती (जैसे हमारी संतान में) और जिसे हम बुरा मान चुके होते हैं, उसमें कोई अच्छाई दिखाई नहीं पडती। दोनों ही स्थितियों में हम सही निर्णय नहीं कर सकते। तब हमारा विकास ऎसे निर्णयों से कैसे हो सकता है।
विकास का अर्थ है-मुक्त दृष्टिकोण। इसी को व्यावहारिक समझ कहते हैं। जो दिखाई पड रहा है, उसी को, उसी रूप में देख सकें और जीवन के बारे में सही निर्णय लेते चले जाएं। नकल में न तो स्वयं का जीवन दिखाई देता है और न ही नकल से पडने वाला प्रभाव। बिना जीवन जीए, व्यक्ति सौ साल पूरे कर जाता है।
:
गुलाब कोठारी
मनुष्य स्वभाव से प्रमादी है आलसी है।
उसे कुछ नहीं करना पडे तो वह बहुत खुश है।
करने की बात हो तो माथा ठनकता है। उस पर भी यदि अरूचि कर कार्य करना पडे तो बडबडाता रहता है। कराने वाले को साथ-साथ कोसता भी रहता है।
स्वभाव के इसी कारण से वह कर्म से बचना भी चाहता है और सब कुछ पाना 
भी चाहता है।
इसी चक्कर में लोग भाग्यवादी बन जाते हैं।
भाग्य तो कर्म के साथ बनता है।
बिना कर्म के पिछले कर्मो के फल ही भोग सकता है।
वर्तमान में कुछ नहीं किया तो किसके फल मिलेंगे भविष्य में! 
तब भाग्य को दोष भी देंगे तो क्या मिल जाएगा।
इसी तरह कुछ लोग अनुष्ठान जुआ-सट्टा आदि के सहारे कुछ पा लेने का प्रयास करते हैं।
वैसे भी जिन्दगी से बडा जुआ और हो भी क्या सकता है।
इसी आलस्य के कारण व्यक्ति स्वयं के विकास के लिए भी कार्य नहीं करता।
उसके बजाए दूसरों की नकल करना अच्छा लगता है।
नकल सफलता की गारण्टी कैसे बन सकती है।
यदि मैं महावीर की ईसा मसीह की नकल करूं तो क्या वैसा बना जा सकता है । आज तो हम नकल के बडे दौर से गुजर रहे हैं। खाना-पीना, पहनावा, जीवन शैली सब कुछ तो नकल के हवाले कर चुके और किए भी जा रहे हैं। विकसित दिखाई देना चाहते हैं। क्या हमारा शरीर और व्यक्तित्व भी विकसित हो पाएगा, नहीं मालूम। व्यक्तिगत विकास और जीवन के मूल मंत्र इस नकल की भेंट चढते जा रहे हैं। स्वयं के विकास के लिए व्यक्ति तपना नहीं चाहता। प्रयोग करना नहीं चाहता। स्वयं को जानने-समझने की ललक छूट रही है। फिर नकल से विकास कैसे संभव है। मैं किसी को समझूं उससे पहले स्वयं को समझूं। वरना लागू किस पर करूंगा। नकल में सारा ध्यान दूसरे पर रहता है, स्वयं पर नहीं रहता।
नकल का अर्थ है, जो मैं नहीं हूं। जो हूं, उसका तो विकास किया जा सकता है। जो नहीं हूं, उसका विकास कैसे संभव है। बीज के अनुरूप ही तो वृक्ष विकसित होगा, पुष्पित-पल्लवित होगा। वैसे ही फल आएंगे। पडौस के पेड वाले फल कैसे लग सकते हैंक् 
बाजार में कोई चीज नकली निकल जाए, तो हम व्यापारी के गले पड जाते हैं। हमारी जीवन शैली स्वयं नकली हो जाए, तब किसके गले पडेंगे। हो भी यही रहा है। न, बच्चों को इसका पता है, न ही मां-बाप को। मां-बाप ने जिसको जन्म दिया, वह किसी और की तरह ही जी रहा है और उनको इसकी अनुभूति नहीं होती। पैदा बेटी हुई, बडी बेटे जैसी हो रही है। अच्छी पत्नी और अच्छी मां उसमें कैसे विकसित होगी। किस प्रकार के संस्कार संतान को दे सके गी। क्या पति के साथ लडका बनकर जी सकेगीक् क्या प्रेम और सम्मान दे सकेगी अथवा केवल अघिकारों के तर्क के साथ जीती रहेगीक् तब उसको सम्मान और मिठास कहां से मिल पाएगा। यह शुद्ध नकल का उदाहरण तो अनेक शिक्षित और सम्पन्न परिवारों में दिखाई देने लगा है। विवाह-विच्छेद अनिवार्य हो जाएगा। मां-बाप का यही आशीर्वाद का विकसित रूप होगा।
जो महत्वपूर्ण तथ्य है कि व्यक्ति जब किसी की नकल करता है, तब उसका अपना आत्मा दब जाता है। जो आत्मा इस शरीर में जीने के लिए आया है, वह जी ही नहीं पाता। उसके सामने एक द्वन्द्व बना ही रहता है कि किस तरह से अपना जीवन जिया जाए। बुद्धि का अहंकार मन की इच्छा को ही आत्मा मानकर जीता रहता है। वह किसी अन्य आत्मा का बनकर जी नहीं सकता। इसमें वह भी मर जाता है और दूसरे के स्वरूप को भी भ्रष्ट कर देता है। क्योंकि वैसा का वैसा बन नहीं सकता। आज हर सम्प्रदाय अपने-अपने नियमों में अनुयायियों को बांधने का प्रयास करता है। अपने-अपने आदर्श पुरूषों के उपदेशों से वैसा ही बनाने का प्रयास करता है। वैसा कोई बन नहीं सकता। तब आत्मा प्रतिहिंसा पर उतर जाता है। कट्टरता दिखाई देने लगती है। प्रतिहिंसा की अभिव्यक्ति ही है।
व्यक्ति रामायण पढ सकता है, राम नहीं बन सकता। राम क्यों आदर्श बने, इस बात को समझने की कोशिश कर सकता है। उन सूत्रों को काम लेकर स्वयं आगे का मार्ग बना सकता है। महापुरूषों की भी नकल नहीं भी जा सकती। वे जैसे थे, वैसे अपनी परिस्थितियों में बडे हो गए। उनको समझकर हम अपनी परिस्थितियों में बडे हो सकें। यही इसका अभिप्राय होना चाहिए। व्यक्ति दस साल के लिए महावीर या जीसस बनने के लिए ध्यान में बैठ जाएगा, तब वह स्वयं कहां खो चुका होगा, इसका अनुमान लगा सकते हैं। व्यक्ति स्वयं को ही आत्मसात कर सकता है। अन्य किसी भी आत्मा को आत्मसात नहीं किया जा सकता। तब हमारे पास एक ही विकल्प बचता है। खुला मस्तिष्क। बिना किसी पूर्वाग्रह के हर महापुरूष के जीवन क्रम को समझने का प्रयास किया जाए। हम मार्ग में यदि “सही और गलत” के भेद में पड गए, तब भी आगे नहीं बढ सकेंगे। हमें सारे चश्मे उतार कर देखना पडेगा। प्रकृति में भी कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता। बस होता है। एक कर्म होता है और उसी के अनुरूप उसका फल होता है। न अच्छा होता है, न बुरा होता है। यह तो हमारी जीवन के प्रति अवधारणाओं के कारण होता है। हम जब किसी की कही हुई बात को मानकर जीने लग जाते हैं, तब सही और गलत दिखाई पडने लग जाते हैं। जो जैसा होता है, उसे उसी रूप में देखने की हमारी क्षमता समाप्त हो जाती है। जिसे हम अच्छा मानते हैं, उसमें कोई कमी दिखाई नहीं देती (जैसे हमारी संतान में) और जिसे हम बुरा मान चुके होते हैं, उसमें कोई अच्छाई दिखाई नहीं पडती। दोनों ही स्थितियों में हम सही निर्णय नहीं कर सकते। तब हमारा विकास ऎसे निर्णयों से कैसे हो सकता है।
विकास का अर्थ है-मुक्त दृष्टिकोण। इसी को व्यावहारिक समझ कहते हैं। जो दिखाई पड रहा है, उसी को, उसी रूप में देख सकें और जीवन के बारे में सही निर्णय लेते चले जाएं। नकल में न तो स्वयं का जीवन दिखाई देता है और न ही नकल से पडने वाला प्रभाव। बिना जीवन जीए, व्यक्ति सौ साल पूरे कर जाता है।
:
गुलाब कोठारी