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मंज़िल का पता नहीं बस चली जा रही हूं। थक चुका है

मंज़िल का पता नहीं 
बस चली जा रही हूं।
थक चुका है मन फिर भी
बस चली जा रही हूं।
जानती है कि बर्दाश्त के बाहर है ये मौसम
फिर भी उम्मीद की छतरी थामे 
बस चले जा रही हूं।
थमेगा कभी ये वक़्त भी 
और आयेगी सुबह
रोशनी के इंतजार में
बस चली जा रही हूं।
है यकीन खुद पर मैं तय कर लूंगी हर डगर
राहों में हो कितने ही कंकड़
अपनी हिम्मत को साथी बना
बस चली जा रही हूं।
मंज़िल का पता नहीं
बस चली जा रही हूं।

©Puja Parmar Sisodiya
  बस चली जा रही हूं..
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