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तुमको शायद बुरा लगेगा सुनकर मेरी बातों को। कोई कोई

तुमको शायद बुरा लगेगा सुनकर मेरी बातों को।
कोई कोई समझ सकेगा इन नाजुक हालातों को।।
घातों पर घातें झेली हैं हँसकर के सब टाल दिया।
खूब गालियांँ पत्थर खाए, दिल से भेद निकाल दिया।। 
दुश्मन की देखो फिर कितनी यह हरकत शैतानी है।
डर से सहमे-सहमे बैठे घर में हिन्दुस्तानी हैं।। 
कोई थूके कोई चाटे कोई नाक छिनकता है। 
घोर घिनौनेपन से इनके घिन का भाव झलकता है।।
आज विश्व पर जब संकट के काले बादल  छाए हैं।
उस पर भी ये जाति धर्म के नारे खूब लगाए हैं।
मजहब को आधार बनाकर टुकड़े-टुकड़े बाँट रहे।
पत्थर वाली दीवारों को काग़ज से हम काट रहे।।
चारों तरफ दिखाई देता अंधकार का पहरा है।
इतना भी आसान नहीं है संकट का घन गहरा है।।
देश हमारा लुहलुहान है नफ़रत की तस्वीरों से।
इनसे सीख जरूरी है अब जागो इन तदबीरों से।। 
खुल्लम खुल्ला खेल रहे जो भारत की आज़ादी से।
जिनको खुन्नस छाई रहती काश्मीर की वादी से।
 ऐसे नमक हरामों की तो ख़ातिर अच्छी -खासी हो। 
करें देश से जो गद्दारी उनको सीधे फाँसी हो।।
प्रदीप वैरागी © #समसामयिक
तुमको शायद बुरा लगेगा सुनकर मेरी बातों को।
कोई कोई समझ सकेगा इन नाजुक हालातों को।।
घातों पर घातें झेली हैं हँसकर के सब टाल दिया।
खूब गालियांँ पत्थर खाए, दिल से भेद निकाल दिया।। 
दुश्मन की देखो फिर कितनी यह हरकत शैतानी है।
डर से सहमे-सहमे बैठे घर में हिन्दुस्तानी हैं।। 
कोई थूके कोई चाटे कोई नाक छिनकता है। 
घोर घिनौनेपन से इनके घिन का भाव झलकता है।।
आज विश्व पर जब संकट के काले बादल  छाए हैं।
उस पर भी ये जाति धर्म के नारे खूब लगाए हैं।
मजहब को आधार बनाकर टुकड़े-टुकड़े बाँट रहे।
पत्थर वाली दीवारों को काग़ज से हम काट रहे।।
चारों तरफ दिखाई देता अंधकार का पहरा है।
इतना भी आसान नहीं है संकट का घन गहरा है।।
देश हमारा लुहलुहान है नफ़रत की तस्वीरों से।
इनसे सीख जरूरी है अब जागो इन तदबीरों से।। 
खुल्लम खुल्ला खेल रहे जो भारत की आज़ादी से।
जिनको खुन्नस छाई रहती काश्मीर की वादी से।
 ऐसे नमक हरामों की तो ख़ातिर अच्छी -खासी हो। 
करें देश से जो गद्दारी उनको सीधे फाँसी हो।।
प्रदीप वैरागी © #समसामयिक