आख़िर में तू मिली भी तो किसे साहिबा जिसने न तेरा ख़्वाब देखा, जिसे न तेरी जुस्तज़ू थी। जिसने न तुझे कभी चाहा, जिसे न तेरी कभी आरज़ू थी। जिसने न तुझे नज़रे मोहब्बत से ही देखा, जिसे ने तेरी कोई ज़रूरत ही थी। कितने प्यासे छोड़ आई नगर नगर गाँव गाँव में, और यूँ समा गई समंदर में जैसे तू थी ही नहीं। ©Ritu Nisha urdu poetry