*देह हूँ मैं*
कविता, जो अन्याय हो रहे इस समाज की व्यवस्था, औरतों के प्रति लोगों की सोच को दर्शाती है। इस कविता के माध्यम से मैं शाल्वी सिंह, एक मनोवैज्ञानिक की छात्रा आप सब को लोगों से जुड़ा वो आईना सुनाना चाहती हूं जो हमारी समझ से परे हो चुका है।
यहाँ देखते तो सब हैं, समझते भी खूब हैं, पर गौर करने की बात ये है की वे लोग कौन है? जो ये समझ नही पा रहे कि इस तरह सरे आम एक स्त्री की इज़्ज़त नीलाम हो रही, हर जगह, हर दिन, हर घंटे।
बहुत दुखत है सबकुछ
लोग नही समझ सकते कि एक औरत पे क्या बीतती है, जब वे ऐसे लोगों के जाल में फंस, किसी नौकरी के झूठे ढकोसलों में फंसकर रह जाती।
कोई नही सोचता ऐसे मुज़रिमो के बारे में, और रही एक औरत से जुड़ी बातें तो वे सह-सहकर एक दिन इतनी मजबूत हो जाती कि फिर उसे फर्क ही नही पड़ता कि उसके साथ क्या हो रहा, लेकिन इसका मतलब ये नही की आप लोग चुपचाप बैठे रहें।
#जानकारी