गली में मन ठहर गया उस मंज़र को याद करके आज जब मैं कई सालो बाद मेरे घर की पीछे वाली गली से निकला, वो छोटी सी दूकान, रंग बिरंगी पतंगे, कांच से तेज़ मांजे, जेब में रखे दस रूपए और वो भूड़ी औरत जो पतंग बेचा करती थी. तब मैं 13-14 साल का रहा हूंगा और वो बुढ़िया 85-90 साल की. बस इतनी सी बात सोचते सोचते मैं घर आ गया l मुझे अब भी एक बात परेशान कर रही है, मैंने उस बुढ़िया का संघर्ष तब बस देखा था, आज समझा हूं. मन दुखी भी है और व्याकुल भी, क्या हुआ होगा उस बुढ़िया का जिसका कोई नहीं था.ना पति था ना संतान. महुल्ले के लोग अम्मा बोला करते थे.मैं भी.सोच रहा हूं वो दूकान बंजर क्यों है, खाली क्यों है? इतना संघर्ष ज़रूरी क्यों है? मेरी गली