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सपनों की कीमत कितनी?? #सपनों_की_कीमत_कितनी? १००-

सपनों की कीमत कितनी?? #सपनों_की_कीमत_कितनी? 

१००-२०० की तादात में कुछ लोग यहां कर्याधर है.... जो लोगो के लिए घर और इमारतें बनाते तो है, लेकिन खुद झुग्गियों में गुजारा करते है....
लोगो के बड़े बड़े सपनों को पूरे कर, वो अपने छोटे अरमानों के साथ जिया करते है। अपने बिल्डिंग के खिड़की पर खड़े रह एक नज़ारा ऐसा दिखा आज, की मानो दिल बेचैन सा हो गया है ये सोच के, क्या यही इनकी ज़िन्दगी है??.....क्या यही इनकी मंज़िल है? सारे अरमान और सपनों का गला घोट के, कौन है ये लोग जो बस निकल पड़े है.....पैदल।

जहा एक तरफ, वो बिल्डर अपना होंडा एकॉर्ड लेके आया था, उन लोगो को शायद यही कहने, "तुम्हारा भूत्तान अब हम नहीं उठा पाएंगे, जब कोई काम ही नहीं चल रहा है, तुम अपना देखो, आत्मनिर्भर बनो, स्वभालंभी बनो", जो सुनकर १०० से अधिांश लोग अपना झोले लेके निकल पड़े..... कुछ बुजुर्ग उनमें से गले में गमछा लपेटे, अपना सर धक कर, की बाहर इस गर्मी से बच सके, कुछ माएं अपने बच्चों को गोद में उठाए, ये सोच के की उनके आने वाला कल का सूरज तो उगे, और बाकी के कुछ तो अपनी पीठ पे बस्ता और सामान का बोझ लिए, एक ही सोच में, की गांव पहुंचने तक, अपनी परिवार का पेट पाल पाऊंगा क्या?? 

आए तो थे वो इस शहर में, गुजारे की आस लगाए, की अपनी पेट की भूख मिटाए, कुछ जमा पुजी इकट्ठा कर, अपने गांव को भेज पाए... लेकिन इस हालात के चलते, सारे सपने जैसे रेत की तरह बिखर रहे हो उनके..... क्या ये सच्चाई देख के भी हम अंदेखा कर पाएंगे, की जो सारे लोग, लाखो की तादात में, घर के बाहर महामारी से पीड़ित, और अन्दर भूख से, जो हमे अपने बेश - किमती घर तयार कराने में अपना पसीना बहाते थे कल तक,आज उनकी ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं रही..... ख़ैर, हम तो बस अफसोस ही कर सकते है, वही कर रहे है, वही करेंगे शायद आगे भी। उम्मीद, इसी के भरोसे तो आज खड़े है..... इसी पे आज हम सब कायम है... की फिर होगा कल एक नया सवेरा, फिर जियेगे हम खुशियों के साथ, फिर घूमेंगे हम यारो के संग, फिर मुस्कुराएगी दुनिया सारी.....
सपनों की कीमत कितनी?? #सपनों_की_कीमत_कितनी? 

१००-२०० की तादात में कुछ लोग यहां कर्याधर है.... जो लोगो के लिए घर और इमारतें बनाते तो है, लेकिन खुद झुग्गियों में गुजारा करते है....
लोगो के बड़े बड़े सपनों को पूरे कर, वो अपने छोटे अरमानों के साथ जिया करते है। अपने बिल्डिंग के खिड़की पर खड़े रह एक नज़ारा ऐसा दिखा आज, की मानो दिल बेचैन सा हो गया है ये सोच के, क्या यही इनकी ज़िन्दगी है??.....क्या यही इनकी मंज़िल है? सारे अरमान और सपनों का गला घोट के, कौन है ये लोग जो बस निकल पड़े है.....पैदल।

जहा एक तरफ, वो बिल्डर अपना होंडा एकॉर्ड लेके आया था, उन लोगो को शायद यही कहने, "तुम्हारा भूत्तान अब हम नहीं उठा पाएंगे, जब कोई काम ही नहीं चल रहा है, तुम अपना देखो, आत्मनिर्भर बनो, स्वभालंभी बनो", जो सुनकर १०० से अधिांश लोग अपना झोले लेके निकल पड़े..... कुछ बुजुर्ग उनमें से गले में गमछा लपेटे, अपना सर धक कर, की बाहर इस गर्मी से बच सके, कुछ माएं अपने बच्चों को गोद में उठाए, ये सोच के की उनके आने वाला कल का सूरज तो उगे, और बाकी के कुछ तो अपनी पीठ पे बस्ता और सामान का बोझ लिए, एक ही सोच में, की गांव पहुंचने तक, अपनी परिवार का पेट पाल पाऊंगा क्या?? 

आए तो थे वो इस शहर में, गुजारे की आस लगाए, की अपनी पेट की भूख मिटाए, कुछ जमा पुजी इकट्ठा कर, अपने गांव को भेज पाए... लेकिन इस हालात के चलते, सारे सपने जैसे रेत की तरह बिखर रहे हो उनके..... क्या ये सच्चाई देख के भी हम अंदेखा कर पाएंगे, की जो सारे लोग, लाखो की तादात में, घर के बाहर महामारी से पीड़ित, और अन्दर भूख से, जो हमे अपने बेश - किमती घर तयार कराने में अपना पसीना बहाते थे कल तक,आज उनकी ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं रही..... ख़ैर, हम तो बस अफसोस ही कर सकते है, वही कर रहे है, वही करेंगे शायद आगे भी। उम्मीद, इसी के भरोसे तो आज खड़े है..... इसी पे आज हम सब कायम है... की फिर होगा कल एक नया सवेरा, फिर जियेगे हम खुशियों के साथ, फिर घूमेंगे हम यारो के संग, फिर मुस्कुराएगी दुनिया सारी.....

#सपनों_की_कीमत_कितनी? १००-२०० की तादात में कुछ लोग यहां कर्याधर है.... जो लोगो के लिए घर और इमारतें बनाते तो है, लेकिन खुद झुग्गियों में गुजारा करते है.... लोगो के बड़े बड़े सपनों को पूरे कर, वो अपने छोटे अरमानों के साथ जिया करते है। अपने बिल्डिंग के खिड़की पर खड़े रह एक नज़ारा ऐसा दिखा आज, की मानो दिल बेचैन सा हो गया है ये सोच के, क्या यही इनकी ज़िन्दगी है??.....क्या यही इनकी मंज़िल है? सारे अरमान और सपनों का गला घोट के, कौन है ये लोग जो बस निकल पड़े है.....पैदल। जहा एक तरफ, वो बिल्डर अपना होंडा एकॉर्ड लेके आया था, उन लोगो को शायद यही कहने, "तुम्हारा भूत्तान अब हम नहीं उठा पाएंगे, जब कोई काम ही नहीं चल रहा है, तुम अपना देखो, आत्मनिर्भर बनो, स्वभालंभी बनो", जो सुनकर १०० से अधिांश लोग अपना झोले लेके निकल पड़े..... कुछ बुजुर्ग उनमें से गले में गमछा लपेटे, अपना सर धक कर, की बाहर इस गर्मी से बच सके, कुछ माएं अपने बच्चों को गोद में उठाए, ये सोच के की उनके आने वाला कल का सूरज तो उगे, और बाकी के कुछ तो अपनी पीठ पे बस्ता और सामान का बोझ लिए, एक ही सोच में, की गांव पहुंचने तक, अपनी परिवार का पेट पाल पाऊंगा क्या?? आए तो थे वो इस शहर में, गुजारे की आस लगाए, की अपनी पेट की भूख मिटाए, कुछ जमा पुजी इकट्ठा कर, अपने गांव को भेज पाए... लेकिन इस हालात के चलते, सारे सपने जैसे रेत की तरह बिखर रहे हो उनके..... क्या ये सच्चाई देख के भी हम अंदेखा कर पाएंगे, की जो सारे लोग, लाखो की तादात में, घर के बाहर महामारी से पीड़ित, और अन्दर भूख से, जो हमे अपने बेश - किमती घर तयार कराने में अपना पसीना बहाते थे कल तक,आज उनकी ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं रही..... ख़ैर, हम तो बस अफसोस ही कर सकते है, वही कर रहे है, वही करेंगे शायद आगे भी। उम्मीद, इसी के भरोसे तो आज खड़े है..... इसी पे आज हम सब कायम है... की फिर होगा कल एक नया सवेरा, फिर जियेगे हम खुशियों के साथ, फिर घूमेंगे हम यारो के संग, फिर मुस्कुराएगी दुनिया सारी.....