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छूटा गांव छूटा घर अपना, जहां खुशियों की महकती क्य

छूटा गांव छूटा घर अपना, जहां खुशियों की 
महकती क्यारी थी,
सुनहरी धूप गुलाबी ठंड, वो बारिश के बाद की
हरियाली थी,
जहां खुशियों के रंग, होली जैसे और हर शाम
लगती दिवाली थी,
रोटी और मौके की तलाश भले ही शहर खींच
लाई है,
लाखों की भीड़ में भी साथ अपने सिर्फ परछाईं है
आज फिर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान छाईं हैं,
क्योंकि गांव से चिट्ठी जो आई है।

©अंदाज
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# गांव #कविता

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