दो प्रहर रात बीत चली... तुम्हारी याद चालें चल रही... शर्माती मुस्कान का घोड़ा निकल पड़ा मोहरा मेरी नींद का पिट गया.. भूरी आंखों ने तिरछी चाल निकाली हाथी आराम का आज फंस गया खुलती जुल्फों ने घेरा डाल दिया गिरती पलकों को चौंका दिया लबों का वजीर आ धमका हर उबासी को अधबीच तोड़ दिया चौखानों में चेहरा नजर आया नर्म बिस्तर आराम न दे पाया इस शतरंज में मात खाकर ही खुश हूं तुम समझी नहीं कभी जो मैं बता न पाया - गर्वित विजय बाज़ी...