कभी अंतस की पीर में कभी अतीत की तस्वीर में कभी व्यथा के संग में कभी मैं और तुम की जंग में कभी खामोशी के शोर में कभी बातों के शांत छोर में कभी आकाश के रंग में कभी शीतल पवन के अंग में खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा न तन्हा हूँ न हूँ मैं उदास मेला सा रहता है हर पल आसपास न चिन्ता के साये हैं न है कोई आस फिर भी है क्यों मन में ये प्यास वो है क्या ? वो कैसा है दिखता? खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा.. भौतिक सुखों की ये कैसी है माया सारे जग को कैसा है भरमाया उँगली पे कैसा नाच नचाया पल में टूटेगी ये मिट्टी की गुड़िया घुल जाएगी जैसे कागज़ की पुड़िया यूँ ही चलता रहेगा ये सारा कारोबार कोई तो बता दे सच्चे सुख का सार खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा जिसका है जितना उतना ही मिलेगा ये मानव मन है कभी न भरेगा कुछ भी नहीं बस धुँआ ही धुँआ है न छुआ किसी ने न ये किसी का हुआ है जाने ये भटकन कहाँ खत्म होगी मिलेगी वो लौ कब दूर कब रज तम ये होगी कभी मुझ में कभी तुझ में खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा ★★★ ©प्राची मिश्रा #poetessprachimishra ©Prachi Mishra #humantouch