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रात को चांदनी ने शीतल कहा मैनें तो इसको सरिता का

रात को चांदनी ने शीतल कहा 
मैनें तो इसको सरिता का जल कहा।।
कितनी बाहें जुणी कितने सोते रहे
वक्त की रेत पर दिनभर सजोते रहे 
कुछ हसे कुछ फसे कुछ तो हुवे आजाद 
कुछ तो जिन्दगी भर फस के रोते रहे
कुछ को पहाड़ ,कुछ को दरिया समंदर लगा
"विकल"मुझको प्रकाश का परावर्तन लगा
इस प्रणवाक्षर अनहद को क्या माया कहे
या आनें वाले अगले सुबह की काया कहें
निःशब्दता का मैने अविरल कहा।।
रात के बाद का सुखद मलमल कहा।।

©Jitendra Singh
  #जितेन्द्रसिंह"विकल"