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मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं, देता रहा हैं और सदै

मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं, देता रहा हैं और सदैव देता रहेगा.....!!!!!
©आयुष पंचोली 
©ayush_tanharaahi हम नही जानते धर्म क्या कहता हैं और अधर्म क्या कहता हैं। क्योकी धर्म और अधर्म का रिश्ता तो सदियो से चला आ रहा हैं। दोनो एक दूसरे से जुदा कभी नही रह सकते। धर्म की अधर्म पर विजय के लिये विश्व मे कितने ही युद्ध हुएँ और आगे भी होते रहेंगे। मगर पुर्ण रूप से धर्म कभी कही हो नही सकता। आप इतिहास उठाकर देखलो धर्म की स्थापना की नीव अधर्म के सहारे ही रखी जाती गई हैं, और सदैव रखी जाती रहेगी।
क्योकी जहां मोह होता हैं, वहां धर्म नही हो सकता। मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं और सदेव देता रहेगा। आपकी नजरो मे आप धर्म के साथ हो सकते हैं, मगर कही ना कही यह धर्म ही आपसे अधर्म कराता हैं। क्योकी मोह का त्याग आप कर नही सकते। और जब तक आपको सत्य का ज्ञान होता हैं, आप कितने ही अधर्म कर चुके होते हो।
धर्म, न्याय, उसूल, यह सब बाते होती हर जगह हैं, मगर इन्हे स्थापित और साबित करने को अधर्म का सहारा सदैव लिया जाता रहा हैं। चाहे बात सतयुग की हो, त्रैतायुग की हो या बात द्वापर की हो। धर्म की स्थापना मे अधर्म का सहारा लेना ही पढ़ता हैं। और यही बात कलयुग मे भी होकर रहेगी। 
सत्य सदैव अनभिज्ञ रहता हैं, जिसका ज्ञान एक ना एक दिन मनुष्य को होकर ही रहता हैं। बस इन्तजार उस क्षण का रहता हैं, की कब वह मोह का त्याग करेगा। मोह का त्याग ही व्यक्ति को धर्म से जोड़ता हैं। और मोह का साथ अधर्म की राह पर ले ही आता हैं।
तथ्य और रहस्य हर जगह, हर सवाल, हर जवाब, हर आकार, हर नीति, हर मार्ग मे छूपे होते हैं। जिन्हे धर्म अपनी आंखो, अपनी सोच, अपने विचारो द्वारा अपनी कसौटी पर परखता और धारण करता हैं, और अधर्म अपनी पर। और जब तक व्यक्ति की सोच और विचार पर मोह का पर्दा रहता हैं, वह सत्य को जानते हुएँ भी अपने अधर्म को भी धर्म ही समझता हैं। यही इस संसार क नीयम हैं। और इस नीयम के सहारे न्याय की आशा रखना व्यर्थ ही हैं।
🙏🙏🙏

©आयुष पंचोली
मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं, देता रहा हैं और सदैव देता रहेगा.....!!!!!
©आयुष पंचोली 
©ayush_tanharaahi हम नही जानते धर्म क्या कहता हैं और अधर्म क्या कहता हैं। क्योकी धर्म और अधर्म का रिश्ता तो सदियो से चला आ रहा हैं। दोनो एक दूसरे से जुदा कभी नही रह सकते। धर्म की अधर्म पर विजय के लिये विश्व मे कितने ही युद्ध हुएँ और आगे भी होते रहेंगे। मगर पुर्ण रूप से धर्म कभी कही हो नही सकता। आप इतिहास उठाकर देखलो धर्म की स्थापना की नीव अधर्म के सहारे ही रखी जाती गई हैं, और सदैव रखी जाती रहेगी।
क्योकी जहां मोह होता हैं, वहां धर्म नही हो सकता। मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं और सदेव देता रहेगा। आपकी नजरो मे आप धर्म के साथ हो सकते हैं, मगर कही ना कही यह धर्म ही आपसे अधर्म कराता हैं। क्योकी मोह का त्याग आप कर नही सकते। और जब तक आपको सत्य का ज्ञान होता हैं, आप कितने ही अधर्म कर चुके होते हो।
धर्म, न्याय, उसूल, यह सब बाते होती हर जगह हैं, मगर इन्हे स्थापित और साबित करने को अधर्म का सहारा सदैव लिया जाता रहा हैं। चाहे बात सतयुग की हो, त्रैतायुग की हो या बात द्वापर की हो। धर्म की स्थापना मे अधर्म का सहारा लेना ही पढ़ता हैं। और यही बात कलयुग मे भी होकर रहेगी। 
सत्य सदैव अनभिज्ञ रहता हैं, जिसका ज्ञान एक ना एक दिन मनुष्य को होकर ही रहता हैं। बस इन्तजार उस क्षण का रहता हैं, की कब वह मोह का त्याग करेगा। मोह का त्याग ही व्यक्ति को धर्म से जोड़ता हैं। और मोह का साथ अधर्म की राह पर ले ही आता हैं।
तथ्य और रहस्य हर जगह, हर सवाल, हर जवाब, हर आकार, हर नीति, हर मार्ग मे छूपे होते हैं। जिन्हे धर्म अपनी आंखो, अपनी सोच, अपने विचारो द्वारा अपनी कसौटी पर परखता और धारण करता हैं, और अधर्म अपनी पर। और जब तक व्यक्ति की सोच और विचार पर मोह का पर्दा रहता हैं, वह सत्य को जानते हुएँ भी अपने अधर्म को भी धर्म ही समझता हैं। यही इस संसार क नीयम हैं। और इस नीयम के सहारे न्याय की आशा रखना व्यर्थ ही हैं।
🙏🙏🙏

©आयुष पंचोली

हम नही जानते धर्म क्या कहता हैं और अधर्म क्या कहता हैं। क्योकी धर्म और अधर्म का रिश्ता तो सदियो से चला आ रहा हैं। दोनो एक दूसरे से जुदा कभी नही रह सकते। धर्म की अधर्म पर विजय के लिये विश्व मे कितने ही युद्ध हुएँ और आगे भी होते रहेंगे। मगर पुर्ण रूप से धर्म कभी कही हो नही सकता। आप इतिहास उठाकर देखलो धर्म की स्थापना की नीव अधर्म के सहारे ही रखी जाती गई हैं, और सदैव रखी जाती रहेगी। क्योकी जहां मोह होता हैं, वहां धर्म नही हो सकता। मोह ही अधर्म को जन्म देता हैं और सदेव देता रहेगा। आपकी नजरो मे आप धर्म के साथ हो सकते हैं, मगर कही ना कही यह धर्म ही आपसे अधर्म कराता हैं। क्योकी मोह का त्याग आप कर नही सकते। और जब तक आपको सत्य का ज्ञान होता हैं, आप कितने ही अधर्म कर चुके होते हो। धर्म, न्याय, उसूल, यह सब बाते होती हर जगह हैं, मगर इन्हे स्थापित और साबित करने को अधर्म का सहारा सदैव लिया जाता रहा हैं। चाहे बात सतयुग की हो, त्रैतायुग की हो या बात द्वापर की हो। धर्म की स्थापना मे अधर्म का सहारा लेना ही पढ़ता हैं। और यही बात कलयुग मे भी होकर रहेगी। सत्य सदैव अनभिज्ञ रहता हैं, जिसका ज्ञान एक ना एक दिन मनुष्य को होकर ही रहता हैं। बस इन्तजार उस क्षण का रहता हैं, की कब वह मोह का त्याग करेगा। मोह का त्याग ही व्यक्ति को धर्म से जोड़ता हैं। और मोह का साथ अधर्म की राह पर ले ही आता हैं। तथ्य और रहस्य हर जगह, हर सवाल, हर जवाब, हर आकार, हर नीति, हर मार्ग मे छूपे होते हैं। जिन्हे धर्म अपनी आंखो, अपनी सोच, अपने विचारो द्वारा अपनी कसौटी पर परखता और धारण करता हैं, और अधर्म अपनी पर। और जब तक व्यक्ति की सोच और विचार पर मोह का पर्दा रहता हैं, वह सत्य को जानते हुएँ भी अपने अधर्म को भी धर्म ही समझता हैं। यही इस संसार क नीयम हैं। और इस नीयम के सहारे न्याय की आशा रखना व्यर्थ ही हैं। 🙏🙏🙏 ©आयुष पंचोली #kuchaisehi #ayushpancholi #hindimerijaan #mereprashnmerisoch