याद है मुझे वो पुराने बचपन के दिन, क्या दिन थे वो दिन। जब हर बात पर रूठा करता था मैं खाने से लेकर कोई भी कैसीभी वस्तु को लेकर रूठना तो मेरा स्वभाविक बनता था क्योंकि मनाने के लिए हर वक़्त मेरी बहिन जो रहती थी तब मैं ऐसा बर्ताव करता था जैसे कि मैंने वो चीज खाकर उस पर कुछ एहसान कर दिया हो? मैं उसके हर काम मे अपनी टाँग अड़ा देता था सपने तो उसके भी थे लेकिन मेरे सपनों की खातिर अपने सपनों से समझौता कर लेती थी मेरी बहिन। अब मुझे पता चला जब समझौता का खुद मेरा नंबर आया था__किसी को मनाना और अपने सपनों से समझौता करना कितना मुश्किल है।। ©Santosh Narwar Aligarh #cousinsister#nojoto