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*।। श्रीहरिः।।* "श्रीचैतन्य - चरितावली" [भज] निताई

*।। श्रीहरिः।।*
"श्रीचैतन्य - चरितावली"
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
* जगदानन्द जी के साथ प्रेम-कलह * [159]
अनिर्दयोपभोगस्य रूपस्य मृदुनः कथम्।
कठिनं खलु ते चेतः शिरीषसयेव बन्धनम्।।
प्रेम कलह में कितना मिठास है, इसका अनुभव प्रेमी हृदय ही कर
सकता है। यदि प्रेम में कलह पृथक की दी जाय जो उसका स्वाद उसी
प्रकार का होगा जिस प्रकार चीनी निकालकर भाँति-भाँति के मेवा
डालकर बनाये हुए हलुवे का। चीनी के बिना जिस प्रकार खूब घी
डालकर बनाया हुआ हलवा स्वादिष्ट और चित्त को प्रसन्नता प्रदान
करने वाला नहीं होता उसी प्रकार जब तक बीच बीच में मधुर मधुर
में
कलह का सम्पुट न लगता रहे, तब तक उसमें निरन्तर रस नहीं
आता। प्रणय-कलह प्रेम को नित्य नूतन बनाती रहती है। कलह
प्रेमरूपी कभी न फटने वाली चद्दर की सज्जी है, वह उसे समय
समय पर धोकर खूब साफ बनाती रहती है। किन्तु यह कलह मधुर
भाव के उपासकों में ही भूषण समझी जाती है; अन्य भावों में तो इसे
दूषण कहा है।

©KhaultiSyahi
  Jai Gurudev
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