था परिंदा एक जो, बैठा था घर में शान में। एक दिन अचानक ढह गया, आशियाना तूफान से।। सोचता रहता परिंदा , क्या करूँ ,कैसे करूँ। आशियाना कैसे बनाऊं, मैं जियूँ या मैं मरुँ।। फिर सोचा ऐसा कर जाऊँ, जीना है क्या अब मर जाऊँ। था रास्ता ऐसा ढूढ़ रहा, कि मौत की पीड़ा सह पाऊँ।। हालात यहाँ भी ऐसा है, मानव भी परिंदे जैसा है। जो मन से अपने हार गया, समझो जीवन बेकार गया।। जीवन में कुछ न कर पाए, तो समझे जीवन व्यर्थ हुआ। ऐसे महानतम शब्द बने, जिनका न कोई अर्थ हुआ।। चढ़ गये जान देने बस वो, सोचा न अपने बारे में। तेरा क्या तू मर जायेगा, सोचा माँ-बाप के बारे में।। तुझे पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया, सोचा तू कुछ कर जायेगा। पर पता नहीं शायद उनको, बेटा बुज़दिल हो जायेगा।। जो जीतता हरदम दुनिया वो, अक़्सर अपनों से हार गया। माँ-बाप को सुखी न रख पाए, जीवन तेरा बेकार गया।। दो शब्द जीत, दो शब्द हार, अंतर जो इसका जान लिया। हारा वो जिसने मान लिया, जीता वो जिसने ठान लिया।। #IITROORKEE