बेतरतीबी और मनमर्ज़ियों से परेशान रहे हम, अपने शहर में अपनों के बीच मेहमान रहें हम। अक़्सर मुझें समझनें में धोख़ा खा जाते है लोग, उत्सव की रातों में सबके बीच बयाबान रहें हम। लाख कोशिश के बाद ज़मानें से क़दम मिला नहीं, चालाकियां समझ न आई अब भी नादान रहें हम। कइयों के लिए तो ज़ीरो से ज़्यादा कुछ न हो पाए, मग़र ख़ुद के लिए इक सल्तनत के सुल्तान रहें हम। अपनों की नवाज़िशों से जान पाए कि ऐब कितने है, अल्हड़पन में ख़ुद की खूबियों से 'अंजान' रहें हम। उत्सव की रात( ग़ज़ल) बेतरतीबी और मनमर्ज़ियों से परेशान रहे हम, अपने शहर में अपनों के बीच मेहमान रहें हम। अक़्सर मुझें समझनें में धोख़ा खा जाते है लोग, उत्सव की रातों में सबके बीच बयाबान रहें हम।