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ये कैसी त्रासदी है बोझिल हुई प्रभंजन काया, चारों

ये कैसी त्रासदी है

बोझिल हुई प्रभंजन काया,
चारों ओर हलाहल छाया।
हे ईश्वर! तेरी नगरी में,
कैसा यह विध्वंस समाया?
है कैसा प्रकोप प्रकृति का,
त्रासदी कैसी यह छाई है ?
आज मनुज का मेल ना हो,
 ऐसी ही ऋतु क्यों लाई है?
क्या इसके अधिकारी हैं, हम?
या फिर जिम्मेदार हैं, हम,
या फिर कोई घनी हटा है,
जिसका बस प्रतिकार है, हम।
अरि है क्यों अदृश्य यहां?
इस विपदा की चतुराई है।
"मैं क्रुद्ध हूं" अनुभव कराने,
ही धरा पर आई है।
हे नर! अब तो आंखें खोलो,
वार न इसका सह पाओगे,
भौतिकवादी इस दुनिया ने,
स्वाभाविकता मिटाई है।
तुमने जो निष्ठुरता की,
परिणाम अधिक दु:खदाई है।
खुद में सामंजस्य बनाने,
प्रकृति आज फिर आयी है!!
                   "संवेदिता"




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©संवेदिता "सायबा"
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