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बर्बादियों के किस्से, सुनाऊँ अपने किससे..! ख़ुशिय

 बर्बादियों के किस्से,
सुनाऊँ अपने किससे..!

ख़ुशियाँ रहीं दूर,
ग़म आये मेरे हिस्से..!

खंड खंड हो चुका हूँ,
एकत्रित होना चाहूँ फिर से..!

बंजर दिल की जमीं पे,
हों ख़ूबसूरत वन गिर से..!

जल रही है चिता चित्त की,
नाक़ामयाबी के डर से..!

निकल रहे हैं घर बनाने,
हम अपने ही यूँ घर से..!

©SHIVA KANT
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