दिन हूँ, रात हूँ,सांझ वाली बाती हूं, मैं खाकी हूँ। आंधी में, तूफ़ान में,होली में, रमजान में, देश के सम्मान में,अडिग कर्तव्यों की अविचल परिपाटी हूँ, मैं खाकी हूँ। तैयार हूँ मैं हमेशा ही,तेज धूप और बारिश, हँस के सह जाने को,सारे त्योहार सड़कों पे, ‘भीड़’ के साथ ‘मनाने’ को, पत्थर और गोली भी खाने को,मैं बनी एक दूजी माटी हूँ, मैं खाकी हूँ। विघ्न विकट सब सह कर भी,सुशोभित सज्जित भाती हूँ, मुस्काती हूँ, इठलाती हूँ,वर्दी का गौरव पाती हूँ, मैं खाकी हूँ। तम में प्रकाश हूँ,कठिन वक़्त की आस हूँ, हर वक़्त तुम्हारे पास हूँ,बुलाओ, मैं दौड़ी आती हूँ, मैं खाकी हूँ। भूख और थकानकी बात ही क्या, कभी आहत हूँ,कभी चोटिल हूँ, और कभी तिरंगे में लिपटी, रोती सिसकती छाती हूँ, मैं खाकी हूँ। शब्द कह पाया कुछ ही,आत्मकथा मैं बाकी हूँ, मैं खाकी हूँ। ✍️✍️-अज्ञात मैं खाकी हूँ