यूँ ही कभी कभी बिछा लेता हूँ खुद को मेजपोश पर और समेट लेता हूँ खुद में वो चाय के कपों के निशान जो तुम छोड़ गई थीं दर्द है, पर अब सुलगता नहीं है अंगारों की आदत सी हो चली है टीस उठती है और दवा हो जाती है साँसों की सीलन हवा हो जाती है एक अजीब सा सुकून मुक़म्मल है ना अब पाने को कुछ बाँकी रहा ना खोने को दर्द है, पर सुलगता नहीं है ठहर गया हूँ शायद किसी झील की तरह जैसे किनारों को उम्र कैद की सजा सुना दी गई हो और अब तुम्हारी कमी जानलेवा भी नहीं रही ख़ुद में दफ़न हो कर ये एहसास हो चला है कि तुम कितनी पराई थीं और वो यादें कितनी मेरी हैं वो ट्रेन की अपर बर्थ मुझ को देख कर मुस्कुराती है और मैं उसको बाहों में लपेट लेता हूँ दर्द है, पर अब सुलगता नहीं है अब खमोशी को कहने दो @ दर्द है, पर अब सुलगता नहीं है ©Mo k sh K an #अब_ख़ामोशी_को_कहने_दो #mokshkan