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एक समय था जब शिक्षा के लिए देश भर में गुरूकुल व्यव

एक समय था जब शिक्षा के लिए देश भर में गुरूकुल व्यवस्था थी।
इस व्यवस्था में बच्चों को गुरू के पास ही रहना पड़ता था।
गुरू हर शिष्य का परीक्षण करके उसके ज्ञान का आकलन करता था। उसके भावी जीवन पर दृष्टि डालकर उसे तैयार करता था।
वही धर्म की शिक्षा भी देता था,
वही लोक व्यवहार और प्रकृति के स्वरूप की शिक्षा भी देता था।
जैसे-जैसे शिष्य तैयार होता जाता था
गुरू का गर्व भी बढ़ता जाता था। शिष्य में वह अपना प्रतिबिम्ब देखता रहता था।
अपना सारा ज्ञान शिष्य को समर्पित कर देता था।
एक पूर्ण मानव का निर्माण करके माता-पिता को सौंप देता था। मानव तो आज भी वही है। केवल बाहरी परिवेश बदलता है। बदलता ही रहा है। इसका प्रभाव भी बाहरी जीवन पर अधिक होता है। चकाचौंध भी हर काल में रही है और सृष्टि का माया भाव भी। शिक्षा देने का कारण भी यही है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति शाश्वत और नश्वर का भेद समझ सके। बाहरी संसार की सीमा को ध्यान में रखकर उसका उपयोग कर सके। नश्वर के पीछे छिपे हुए शाश्वत को पकड़ सके। जीवन भ्रमित न हो पाए। जीवन का लक्ष्य हाथ से छूट न पाए। ईश्वर में पूर्ण आस्था रखते हुए सुख-दु:ख में तटस्थ रह सके। तभी उसे आसक्ति का अर्थ और प्रभाव भी समझ में आ सकेगा। राग-द्वेष पर नियंत्रण करके शान्त हो सकेगा।

आज का मानव अशान्त है, क्लान्त है। अपने ज्ञान के सहारे वह शाश्वत और नश्वर का भेद नहीं कर पा रहा। पुरूष और प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहा। शरीर को स्वयं से अलग करके देख ही नहीं पा रहा। कोई शरीर के आधार पर ही जी रहा है। कोई बुद्धि के आगे कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। कोई-कोई तो बस मनमानी ही करता रहता है। खेद की बात है कि जो जिस धरातल पर जी रहा है, उस धरातल को भी अच्छी तरह नहीं जानता। शरीर में जीने वाले को पता नहीं शरीर का स्वरूप क्या है। कैसे कार्य करता है। प्रकृति किस प्रकार शरीर को चला रही है। व्यक्ति का योगदान क्या है। शरीर के भीतर रहने वाली अदृश्य शक्तियां-मन-बुद्धि-आत्मा, कैसे इस शरीर को चलाती हैं। शरीर को जड़ क्यों कहते हैं। शरीर का उपयोग कैसे-कैसे हो सकता है। शरीर की भाषा क्या है। इस भाषा को कैसे सीखा जा सकता है। भीतर की शक्तियां कैसे अभिव्यक्त होती हैं, इस शरीर में। आधि-व्याधि का शरीर के साथ क्या सम्बन्ध है। समाधि क्या है। प्राण क्या हैं। मन क्या है। इन्द्रियों का संचालन कैसे होता है। कामनाएं कैसे पैदा होती हैं। आत्मा क्या है। कैसे और किस रूप में रहता है इस शरीर में। कैसे काम लेता है, इस शरीर से। कैसे आता है और शरीर के जाते ही चला जाता है। ऎसे अनेक प्रश्नो का उत्तर जीवन खोजता भी रहता है। इसके बिना जीवन को समग्रता के साथ नहीं जी सकते। सार्थक नहीं बना सकते। गुरूकुल शिक्षा इसी जीवन-स्वरूप पर आधारित थी। हर व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप भिन्न होती थी। आज स्कूलों से बच्चे एक कारखाने के उत्पाद की तरह पढ़कर बाहर निकलते हैं। एक-सी यांत्रिक शिक्षा ग्रहण करके नौकरी पाने को एक-दूसरे से होड़ करते रहते हैं। नौकरी के अतिरिक्त इस शिक्षा की उपयोगिता नहीं है। शिक्षा में न तो प्रकृति का वर्ण भेद आधार है, न ही व्यक्ति के संस्कार और पारिवारिक परिवेश। एक व्यापारी/ उद्योगपति के बच्चे को भी नौकरी मांगने वाली शिक्षा ही दी जाती है। किसी को पेट भरना सिखाने के लिए जीवन का कितना बड़ा भाग व्यर्थ जा रहा है। रेल के डिब्बों की तरह सारे बच्चे एक जैसे तैयार हो रहे हैं। सचाई यह है कि सबको ही अपना-अपना जीवन अलग तरह से जीना है।

इसका मुख्य कारण है कि शिक्षा में मानवता का अभाव। व्यक्ति से जुड़े जीवन के विषय चर्चा में भी नहीं आते। केवल बाहरी जीवन के विषय पढ़ाए जाते हैं। जीवन जीने में इनका कहीं कोई उपयोग ही नहीं होता। फिर शिक्षा जीवन से कहां और कैसे जुड़ी है ऎसी शिक्षा की क्या अनिवार्यता है अक्षर ज्ञान तो भाषा सीखने के लिए दिया जाता है। भाषा ज्ञान ग्रहण करने का माध्यम है। स्वयं ज्ञान नहीं है। ज्ञान का शिक्षा में कोई स्थान ही नहीं है। अत: मुमुक्षु के लिए साक्षरता की अनिवार्यता समझ में आती है। शिक्षा की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। हमारे ग्रामीण समुदाय की विडम्बना यही है कि अनिवार्य शिक्षा के नाम पर उनके बच्चों को स्कूल ले जाया जाता है। आठवीं-दसवीं के आगे पढ़ नहीं पाते। नौकरी उनको मिलेगी भी कहां से! वे लौटकर पैतृक काम को भी करने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें तो बस नौकरी चाहिए। इसका असर यह हुआ कि हमारी सारी ग्रामीण सेवाएं एक-एक करके ठप्प होती जा रही है । खाती, कुम्हार, माली, धोबी, आदि सभी आवश्यक सुविधाएं लुप्त हो रही हैं। इन बच्चों को यदि काम पर रहते भाषा ज्ञान कराया जाता तो पन्द्रह वर्ष की आयु तक सभी बच्चे अपना-अपना पैतृक कारोबार भी संभाल सकते थे। नौकरी से अच्छी आय भी कर सकते थे। स्वतंत्र जीवन भी जी सकते थे। हमारी विकृत मानसिकता ने पूरे समाज के आर्थिक ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया। जिस गति से स्कूलें खोली जा रही हैं, उस गति से अच्छे शिक्षक भी तैयार नहीं हो सकते। स्कूलों के नाम पर कारखाने खड़े किए जा रहे हैं।

उच्च शिक्षा की स्थिति तो और भी दयनीय है। इसमें मानवीय अपूर्णता का ही प्रमाण-पत्र दिया जाता है। अदृश्य रूप से डिग्री पर पढ़ा जा सकता है कि इस डिग्री का धारक एक अपूर्ण मानव है। इसका व्यक्तित्व अपूर्ण है। जीवन-ज्ञान से तो यह शून्य ही है। भाग्य से यदि अच्छी नौकरी मिल जाए तो अपना और परिवार का पेट भर सकता है। सुखी तो रहेगा ही नहीं। क्योंकि जो कुछ भी इसे पढ़ाया गया है, वह इसकी संस्कृति और इसके संस्कारों से मेल नहीं खाता। नकल और स्पर्द्धा पर आधारित जीवन शैली इसे सिखाई गई है। जीवन निजी धरोहर है। स्पर्द्धा नहीं है। खुद को बड़ा करने के लिए जीना होता है। अद्वितीय है, तब दूसरों जैसा क्यों बनें
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एक समय था जब शिक्षा के लिए देश भर में गुरूकुल व्यवस्था थी।
इस व्यवस्था में बच्चों को गुरू के पास ही रहना पड़ता था।
गुरू हर शिष्य का परीक्षण करके उसके ज्ञान का आकलन करता था। उसके भावी जीवन पर दृष्टि डालकर उसे तैयार करता था।
वही धर्म की शिक्षा भी देता था,
वही लोक व्यवहार और प्रकृति के स्वरूप की शिक्षा भी देता था।
जैसे-जैसे शिष्य तैयार होता जाता था
गुरू का गर्व भी बढ़ता जाता था। शिष्य में वह अपना प्रतिबिम्ब देखता रहता था।
अपना सारा ज्ञान शिष्य को समर्पित कर देता था।
एक पूर्ण मानव का निर्माण करके माता-पिता को सौंप देता था। मानव तो आज भी वही है। केवल बाहरी परिवेश बदलता है। बदलता ही रहा है। इसका प्रभाव भी बाहरी जीवन पर अधिक होता है। चकाचौंध भी हर काल में रही है और सृष्टि का माया भाव भी। शिक्षा देने का कारण भी यही है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति शाश्वत और नश्वर का भेद समझ सके। बाहरी संसार की सीमा को ध्यान में रखकर उसका उपयोग कर सके। नश्वर के पीछे छिपे हुए शाश्वत को पकड़ सके। जीवन भ्रमित न हो पाए। जीवन का लक्ष्य हाथ से छूट न पाए। ईश्वर में पूर्ण आस्था रखते हुए सुख-दु:ख में तटस्थ रह सके। तभी उसे आसक्ति का अर्थ और प्रभाव भी समझ में आ सकेगा। राग-द्वेष पर नियंत्रण करके शान्त हो सकेगा।

आज का मानव अशान्त है, क्लान्त है। अपने ज्ञान के सहारे वह शाश्वत और नश्वर का भेद नहीं कर पा रहा। पुरूष और प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहा। शरीर को स्वयं से अलग करके देख ही नहीं पा रहा। कोई शरीर के आधार पर ही जी रहा है। कोई बुद्धि के आगे कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। कोई-कोई तो बस मनमानी ही करता रहता है। खेद की बात है कि जो जिस धरातल पर जी रहा है, उस धरातल को भी अच्छी तरह नहीं जानता। शरीर में जीने वाले को पता नहीं शरीर का स्वरूप क्या है। कैसे कार्य करता है। प्रकृति किस प्रकार शरीर को चला रही है। व्यक्ति का योगदान क्या है। शरीर के भीतर रहने वाली अदृश्य शक्तियां-मन-बुद्धि-आत्मा, कैसे इस शरीर को चलाती हैं। शरीर को जड़ क्यों कहते हैं। शरीर का उपयोग कैसे-कैसे हो सकता है। शरीर की भाषा क्या है। इस भाषा को कैसे सीखा जा सकता है। भीतर की शक्तियां कैसे अभिव्यक्त होती हैं, इस शरीर में। आधि-व्याधि का शरीर के साथ क्या सम्बन्ध है। समाधि क्या है। प्राण क्या हैं। मन क्या है। इन्द्रियों का संचालन कैसे होता है। कामनाएं कैसे पैदा होती हैं। आत्मा क्या है। कैसे और किस रूप में रहता है इस शरीर में। कैसे काम लेता है, इस शरीर से। कैसे आता है और शरीर के जाते ही चला जाता है। ऎसे अनेक प्रश्नो का उत्तर जीवन खोजता भी रहता है। इसके बिना जीवन को समग्रता के साथ नहीं जी सकते। सार्थक नहीं बना सकते। गुरूकुल शिक्षा इसी जीवन-स्वरूप पर आधारित थी। हर व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप भिन्न होती थी। आज स्कूलों से बच्चे एक कारखाने के उत्पाद की तरह पढ़कर बाहर निकलते हैं। एक-सी यांत्रिक शिक्षा ग्रहण करके नौकरी पाने को एक-दूसरे से होड़ करते रहते हैं। नौकरी के अतिरिक्त इस शिक्षा की उपयोगिता नहीं है। शिक्षा में न तो प्रकृति का वर्ण भेद आधार है, न ही व्यक्ति के संस्कार और पारिवारिक परिवेश। एक व्यापारी/ उद्योगपति के बच्चे को भी नौकरी मांगने वाली शिक्षा ही दी जाती है। किसी को पेट भरना सिखाने के लिए जीवन का कितना बड़ा भाग व्यर्थ जा रहा है। रेल के डिब्बों की तरह सारे बच्चे एक जैसे तैयार हो रहे हैं। सचाई यह है कि सबको ही अपना-अपना जीवन अलग तरह से जीना है।

इसका मुख्य कारण है कि शिक्षा में मानवता का अभाव। व्यक्ति से जुड़े जीवन के विषय चर्चा में भी नहीं आते। केवल बाहरी जीवन के विषय पढ़ाए जाते हैं। जीवन जीने में इनका कहीं कोई उपयोग ही नहीं होता। फिर शिक्षा जीवन से कहां और कैसे जुड़ी है ऎसी शिक्षा की क्या अनिवार्यता है अक्षर ज्ञान तो भाषा सीखने के लिए दिया जाता है। भाषा ज्ञान ग्रहण करने का माध्यम है। स्वयं ज्ञान नहीं है। ज्ञान का शिक्षा में कोई स्थान ही नहीं है। अत: मुमुक्षु के लिए साक्षरता की अनिवार्यता समझ में आती है। शिक्षा की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। हमारे ग्रामीण समुदाय की विडम्बना यही है कि अनिवार्य शिक्षा के नाम पर उनके बच्चों को स्कूल ले जाया जाता है। आठवीं-दसवीं के आगे पढ़ नहीं पाते। नौकरी उनको मिलेगी भी कहां से! वे लौटकर पैतृक काम को भी करने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें तो बस नौकरी चाहिए। इसका असर यह हुआ कि हमारी सारी ग्रामीण सेवाएं एक-एक करके ठप्प होती जा रही है । खाती, कुम्हार, माली, धोबी, आदि सभी आवश्यक सुविधाएं लुप्त हो रही हैं। इन बच्चों को यदि काम पर रहते भाषा ज्ञान कराया जाता तो पन्द्रह वर्ष की आयु तक सभी बच्चे अपना-अपना पैतृक कारोबार भी संभाल सकते थे। नौकरी से अच्छी आय भी कर सकते थे। स्वतंत्र जीवन भी जी सकते थे। हमारी विकृत मानसिकता ने पूरे समाज के आर्थिक ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया। जिस गति से स्कूलें खोली जा रही हैं, उस गति से अच्छे शिक्षक भी तैयार नहीं हो सकते। स्कूलों के नाम पर कारखाने खड़े किए जा रहे हैं।

उच्च शिक्षा की स्थिति तो और भी दयनीय है। इसमें मानवीय अपूर्णता का ही प्रमाण-पत्र दिया जाता है। अदृश्य रूप से डिग्री पर पढ़ा जा सकता है कि इस डिग्री का धारक एक अपूर्ण मानव है। इसका व्यक्तित्व अपूर्ण है। जीवन-ज्ञान से तो यह शून्य ही है। भाग्य से यदि अच्छी नौकरी मिल जाए तो अपना और परिवार का पेट भर सकता है। सुखी तो रहेगा ही नहीं। क्योंकि जो कुछ भी इसे पढ़ाया गया है, वह इसकी संस्कृति और इसके संस्कारों से मेल नहीं खाता। नकल और स्पर्द्धा पर आधारित जीवन शैली इसे सिखाई गई है। जीवन निजी धरोहर है। स्पर्द्धा नहीं है। खुद को बड़ा करने के लिए जीना होता है। अद्वितीय है, तब दूसरों जैसा क्यों बनें
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मानव तो आज भी वही है। केवल बाहरी परिवेश बदलता है। बदलता ही रहा है। इसका प्रभाव भी बाहरी जीवन पर अधिक होता है। चकाचौंध भी हर काल में रही है और सृष्टि का माया भाव भी। शिक्षा देने का कारण भी यही है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति शाश्वत और नश्वर का भेद समझ सके। बाहरी संसार की सीमा को ध्यान में रखकर उसका उपयोग कर सके। नश्वर के पीछे छिपे हुए शाश्वत को पकड़ सके। जीवन भ्रमित न हो पाए। जीवन का लक्ष्य हाथ से छूट न पाए। ईश्वर में पूर्ण आस्था रखते हुए सुख-दु:ख में तटस्थ रह सके। तभी उसे आसक्ति का अर्थ और प्रभाव भी समझ में आ सकेगा। राग-द्वेष पर नियंत्रण करके शान्त हो सकेगा। आज का मानव अशान्त है, क्लान्त है। अपने ज्ञान के सहारे वह शाश्वत और नश्वर का भेद नहीं कर पा रहा। पुरूष और प्रकृति के साथ समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहा। शरीर को स्वयं से अलग करके देख ही नहीं पा रहा। कोई शरीर के आधार पर ही जी रहा है। कोई बुद्धि के आगे कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। कोई-कोई तो बस मनमानी ही करता रहता है। खेद की बात है कि जो जिस धरातल पर जी रहा है, उस धरातल को भी अच्छी तरह नहीं जानता। शरीर में जीने वाले को पता नहीं शरीर का स्वरूप क्या है। कैसे कार्य करता है। प्रकृति किस प्रकार शरीर को चला रही है। व्यक्ति का योगदान क्या है। शरीर के भीतर रहने वाली अदृश्य शक्तियां-मन-बुद्धि-आत्मा, कैसे इस शरीर को चलाती हैं। शरीर को जड़ क्यों कहते हैं। शरीर का उपयोग कैसे-कैसे हो सकता है। शरीर की भाषा क्या है। इस भाषा को कैसे सीखा जा सकता है। भीतर की शक्तियां कैसे अभिव्यक्त होती हैं, इस शरीर में। आधि-व्याधि का शरीर के साथ क्या सम्बन्ध है। समाधि क्या है। प्राण क्या हैं। मन क्या है। इन्द्रियों का संचालन कैसे होता है। कामनाएं कैसे पैदा होती हैं। आत्मा क्या है। कैसे और किस रूप में रहता है इस शरीर में। कैसे काम लेता है, इस शरीर से। कैसे आता है और शरीर के जाते ही चला जाता है। ऎसे अनेक प्रश्नो का उत्तर जीवन खोजता भी रहता है। इसके बिना जीवन को समग्रता के साथ नहीं जी सकते। सार्थक नहीं बना सकते। गुरूकुल शिक्षा इसी जीवन-स्वरूप पर आधारित थी। हर व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप भिन्न होती थी। आज स्कूलों से बच्चे एक कारखाने के उत्पाद की तरह पढ़कर बाहर निकलते हैं। एक-सी यांत्रिक शिक्षा ग्रहण करके नौकरी पाने को एक-दूसरे से होड़ करते रहते हैं। नौकरी के अतिरिक्त इस शिक्षा की उपयोगिता नहीं है। शिक्षा में न तो प्रकृति का वर्ण भेद आधार है, न ही व्यक्ति के संस्कार और पारिवारिक परिवेश। एक व्यापारी/ उद्योगपति के बच्चे को भी नौकरी मांगने वाली शिक्षा ही दी जाती है। किसी को पेट भरना सिखाने के लिए जीवन का कितना बड़ा भाग व्यर्थ जा रहा है। रेल के डिब्बों की तरह सारे बच्चे एक जैसे तैयार हो रहे हैं। सचाई यह है कि सबको ही अपना-अपना जीवन अलग तरह से जीना है। इसका मुख्य कारण है कि शिक्षा में मानवता का अभाव। व्यक्ति से जुड़े जीवन के विषय चर्चा में भी नहीं आते। केवल बाहरी जीवन के विषय पढ़ाए जाते हैं। जीवन जीने में इनका कहीं कोई उपयोग ही नहीं होता। फिर शिक्षा जीवन से कहां और कैसे जुड़ी है ऎसी शिक्षा की क्या अनिवार्यता है अक्षर ज्ञान तो भाषा सीखने के लिए दिया जाता है। भाषा ज्ञान ग्रहण करने का माध्यम है। स्वयं ज्ञान नहीं है। ज्ञान का शिक्षा में कोई स्थान ही नहीं है। अत: मुमुक्षु के लिए साक्षरता की अनिवार्यता समझ में आती है। शिक्षा की अनिवार्यता समझ में नहीं आती। हमारे ग्रामीण समुदाय की विडम्बना यही है कि अनिवार्य शिक्षा के नाम पर उनके बच्चों को स्कूल ले जाया जाता है। आठवीं-दसवीं के आगे पढ़ नहीं पाते। नौकरी उनको मिलेगी भी कहां से! वे लौटकर पैतृक काम को भी करने के लिए तैयार नहीं होते। उन्हें तो बस नौकरी चाहिए। इसका असर यह हुआ कि हमारी सारी ग्रामीण सेवाएं एक-एक करके ठप्प होती जा रही है । खाती, कुम्हार, माली, धोबी, आदि सभी आवश्यक सुविधाएं लुप्त हो रही हैं। इन बच्चों को यदि काम पर रहते भाषा ज्ञान कराया जाता तो पन्द्रह वर्ष की आयु तक सभी बच्चे अपना-अपना पैतृक कारोबार भी संभाल सकते थे। नौकरी से अच्छी आय भी कर सकते थे। स्वतंत्र जीवन भी जी सकते थे। हमारी विकृत मानसिकता ने पूरे समाज के आर्थिक ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया। जिस गति से स्कूलें खोली जा रही हैं, उस गति से अच्छे शिक्षक भी तैयार नहीं हो सकते। स्कूलों के नाम पर कारखाने खड़े किए जा रहे हैं। उच्च शिक्षा की स्थिति तो और भी दयनीय है। इसमें मानवीय अपूर्णता का ही प्रमाण-पत्र दिया जाता है। अदृश्य रूप से डिग्री पर पढ़ा जा सकता है कि इस डिग्री का धारक एक अपूर्ण मानव है। इसका व्यक्तित्व अपूर्ण है। जीवन-ज्ञान से तो यह शून्य ही है। भाग्य से यदि अच्छी नौकरी मिल जाए तो अपना और परिवार का पेट भर सकता है। सुखी तो रहेगा ही नहीं। क्योंकि जो कुछ भी इसे पढ़ाया गया है, वह इसकी संस्कृति और इसके संस्कारों से मेल नहीं खाता। नकल और स्पर्द्धा पर आधारित जीवन शैली इसे सिखाई गई है। जीवन निजी धरोहर है। स्पर्द्धा नहीं है। खुद को बड़ा करने के लिए जीना होता है। अद्वितीय है, तब दूसरों जैसा क्यों बनें :