चार तिनके उठा के जंगल से एक बाली अनाज की लेकर चंद कतरे बिलखते अश्कों के चंद फांके बुझे हुए लब पर मुट्ठी भर अपने कब्र की मिटटी मुट्ठी भर आरजुओं का गारा एक तामीर की लिए हसरत तेरा खानाबदोश बेचारा शहर में दर-ब-दर भटकता है तेरा कांधा मिले तो टेकूं! gulzar sahab My_Words✍✍