मेरे कुछ अजीज दोस्त शाम होते ही किताबों में नजर आते थे। वो आज-कल न जाने क्यों , पूरी रात छत पे नजर आते है । सुना है उसके घर की छत पे , शाम को सन्नाटा रहता है। सो खुले आसमां का बहाना करके न जाने किसके ख्वाब की अपने दिल में मोमबत्तीयाँ जलाता है। रात को उसे नींद आए भी तो कैसे वो एक आवाज फिर तो हर गीत उसे सुने से लगते होगे। फिर क्या मंजिल है, क्या मुकद्दर है सब सावन के महीने से लगते होगे। सुबह होते ही वो उसकी तस्वीर देखकर चाय पीता होगा। शहर के मकानों में शायद वो अपना गाँव ढूँढता होगा......