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______ हमारे निज़ी जीवन में कभी कभी कुछ ऐसा घटित हो

______ हमारे निज़ी जीवन में कभी कभी कुछ ऐसा घटित हो जाता है, जो हमारे पूरे जीवन में अपनी छाप छोड़ जाता है।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, ये वक़ीया 2017 के जुलाई महीने का है,जब मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करके स्नातक स्तर की पढ़ाई हेतु बी. ए में प्रवेश ले रही थी।
पहले मैं ज्यादातर हर तरह से अपने पिता जी पर ही आश्रित रहती थी, और उस समय भी वैसा ही था।
मेरे पापा एक अाशुलिपि लेखक हैं, इसलिए मेरे बचपन से ही मेरे घर में कम्प्यूटर है, और स्नातक में प्रवेश की भी प्रतियाँ ऑनलाइन ज़ारी हुईं थी।
बस फिर क्या था, पापा जी ने ही मेरे लिए स्नातक की प्रति भर दिए, कुछ ही दिन बाद प्रवेश परीक्षा हुईं और मेरी परीक्षा प्रयागराज के सुलेमसराय में स्थित एम वी कोन्वेंट विद्यालय में होनी थी, मेरे पापा जी के कहने पर मेरे चाचा जी मुझे उस विद्यालय में ले गए, इतनी भीड़ के बीच नाम और कक्षा प्रति जो विद्यालय के प्रमुख द्वार के अंदर एक खम्भे ( पिलर ) पर चिपकई गयी थी, उसमे से मेरी कक्षा ढूंढ़ कर मुझे वहाँ बिठा कर मुझे सारी चिंता से निश्चिन्त करके वो बहार चले गए।
मैंने बस किसी राजकुमारी की भांति परीक्षा दी, परीक्षा ख़त्म हो जाने के पश्चात मैं विद्यालय से निकल कर बाहर आयी, अपने सामने चाचा जी को ना देख कर मैं थोड़ा घबरा गयी और हर तरफ देखने लगी, पर जैसे मेरी नज़र मेरे दाहिने तरफ घुमाते ही, हर क़दम पर साये की तरह मेरे साथ साथ चलने वाले मेरे पापा जी !
मेरे सामने खड़े मेरा इंज़ार कर रहे थे, और मुझे थोड़ा घबराता देख मेरी ओर बढ़े चले आ रहे थे।
अब जुलाई आ गयी थी, और परीक्षा का परिणाम भी आ गया था, और अब मुझे अपनी सहेली के साथ प्रयागराज के मीरापुर में स्थित एस. एस. खन्ना महिला महाविद्यालय में प्रवेश लेना था, जहाँ मेरी सहेली की बड़ी बहन ने भी स्नातक किया था और हम दोनो को भी उन्होंने ही आश्वासन दिलाया था, कि वो कॉलेज अच्छा है तुम लोग भी वहीं पढ़ो।
पापा जी को उनके काम में थोड़ी व्यस्तता होने की वजह से मुझे वो कई बार कह चुके थे कि, आस्था जाओ प्रवेश लेलो नहीं विषय सीटें भर जाएंगी पर मैं पापा जी के बिना कॉलेज नहीं गयी। और जुलाई महीने में तो बारिश भी खूब होती है, तो बारिश और कॉलेज जाने का रास्ता ना पता होने का बहाना भी मेरा अच्छा था।
फिर पापा जी ही अपने काम से समय निकाल कर एक दिन हल्की बारिश होते हुए भी मुझे अपनी बाइक से कॉलेज प्रवेश के लिए ले गए थे।
वहाँ काउंसीलिंग हॉल के बाहर अन्य बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ हम भी बैठ गए, तभी हमारे कॉलेज पहुंचते ही तेज बारिश होने लगी, और हम दूसरी बारी का इंज़ार करने लगे, लगभग आधे घंटे बाद काउंसीलिंग की दूसरी बारी आयी थी, अब दोपहर के साढ़े बारा बज चुके थे, तभी हॉल का दरवाज़ा खुला अंदर के बच्चे बाहर आने लगे और हॉल के खाली होते ही दरवाज़े पर खड़े चपरासी अंकल ने सब को अंदर आने की अनुमती दी। सब अंदर जाने लगे सब के साथ मैं भी अपने पापा जी का हाथ पकड़ कर हॉल में जा ही रही थी कि तभी वो चपरासी अंकल पापा को अंदर आने से रोकते हुए बोल पड़े, बिटिया कब तक पापा का हाथ पकड़ के चलोगी अब अकेले चलना सीख लो!
ये बात मेरे दिल और दिमाग़ में उसी समय अपना घर कर गयी थी।
और वो अंकल पापा से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे हॉल में ले जाने लगे,मैं सहमी हुईं नज़रों से थोड़ा रुआसी सी होकर पापा जी से आँखों ही आँखों से पूछ बैठी, पापा हम अकेले कैसे करेंगे! और पापा जी ने मेरी आँखों से पूछ गया ये सवाल जैसे समझ गए थे, फिर मुझे ढांढस देते हुए पापा जी बोले जाओ हम हैं ना यहाँ बाहर जो काम हो बताना। मैं फिरभी डरते हुए हॉल के अंदर चली गयी।
मेरे पापा जी के बिना पहेली बार मैं कहीं गयी थी। अंदर मुझसे कोई कुछ पूछ लेता या मुझसे थोड़ा भी ऊँचा कोई बोल देता तो मैं डर कर रोते रोते रुकती थी। 
उस दिन से पहले पापा जी के बिना एक क़दम भी अकेले चलना मेरे लिए दुशवार होता था।
वो एहसास मेरे मन को अक़्सर रौंद कर चला जाता है, वो अंकल की बात जब भी याद आती है मेरे कान में वही शब्द गूंज उठते हैं, और आँखों के सामने वही दृश्य घूम जाता हैं।
मैंने ज़रूर ही पिछले जन्म में कोई बहुत अच्छे कर्म किये होंगे जो दस साल पहले इतनी भयानक दुर्घटना से गुजरने के बाद भी मेरे पापा जी का साया मेरे सर पर बना रहा है।
अब मैं थोड़ा सफ़र पापा जी के बिना इसलिए कर लेती हूँ क्योंकि अब मूझे यक़ीन है कि वो हमेशा
हर जगह, हर वक़्त, प्रत्यक्ष तो हैं ही पर अप्रत्यक्ष रूप में भी हमेशा वो मेरे साथ रहते हैं, गिरने पर मूझे सहारा देने के लिए पीछे मेरे साथ वो भी विचरते रहते हैं।

©Astha Dwivedi कॉउंसलिंग हॉल
______ हमारे निज़ी जीवन में कभी कभी कुछ ऐसा घटित हो जाता है, जो हमारे पूरे जीवन में अपनी छाप छोड़ जाता है।
ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, ये वक़ीया 2017 के जुलाई महीने का है,जब मैं इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करके स्नातक स्तर की पढ़ाई हेतु बी. ए में प्रवेश ले रही थी।
पहले मैं ज्यादातर हर तरह से अपने पिता जी पर ही आश्रित रहती थी, और उस समय भी वैसा ही था।
मेरे पापा एक अाशुलिपि लेखक हैं, इसलिए मेरे बचपन से ही मेरे घर में कम्प्यूटर है, और स्नातक में प्रवेश की भी प्रतियाँ ऑनलाइन ज़ारी हुईं थी।
बस फिर क्या था, पापा जी ने ही मेरे लिए स्नातक की प्रति भर दिए, कुछ ही दिन बाद प्रवेश परीक्षा हुईं और मेरी परीक्षा प्रयागराज के सुलेमसराय में स्थित एम वी कोन्वेंट विद्यालय में होनी थी, मेरे पापा जी के कहने पर मेरे चाचा जी मुझे उस विद्यालय में ले गए, इतनी भीड़ के बीच नाम और कक्षा प्रति जो विद्यालय के प्रमुख द्वार के अंदर एक खम्भे ( पिलर ) पर चिपकई गयी थी, उसमे से मेरी कक्षा ढूंढ़ कर मुझे वहाँ बिठा कर मुझे सारी चिंता से निश्चिन्त करके वो बहार चले गए।
मैंने बस किसी राजकुमारी की भांति परीक्षा दी, परीक्षा ख़त्म हो जाने के पश्चात मैं विद्यालय से निकल कर बाहर आयी, अपने सामने चाचा जी को ना देख कर मैं थोड़ा घबरा गयी और हर तरफ देखने लगी, पर जैसे मेरी नज़र मेरे दाहिने तरफ घुमाते ही, हर क़दम पर साये की तरह मेरे साथ साथ चलने वाले मेरे पापा जी !
मेरे सामने खड़े मेरा इंज़ार कर रहे थे, और मुझे थोड़ा घबराता देख मेरी ओर बढ़े चले आ रहे थे।
अब जुलाई आ गयी थी, और परीक्षा का परिणाम भी आ गया था, और अब मुझे अपनी सहेली के साथ प्रयागराज के मीरापुर में स्थित एस. एस. खन्ना महिला महाविद्यालय में प्रवेश लेना था, जहाँ मेरी सहेली की बड़ी बहन ने भी स्नातक किया था और हम दोनो को भी उन्होंने ही आश्वासन दिलाया था, कि वो कॉलेज अच्छा है तुम लोग भी वहीं पढ़ो।
पापा जी को उनके काम में थोड़ी व्यस्तता होने की वजह से मुझे वो कई बार कह चुके थे कि, आस्था जाओ प्रवेश लेलो नहीं विषय सीटें भर जाएंगी पर मैं पापा जी के बिना कॉलेज नहीं गयी। और जुलाई महीने में तो बारिश भी खूब होती है, तो बारिश और कॉलेज जाने का रास्ता ना पता होने का बहाना भी मेरा अच्छा था।
फिर पापा जी ही अपने काम से समय निकाल कर एक दिन हल्की बारिश होते हुए भी मुझे अपनी बाइक से कॉलेज प्रवेश के लिए ले गए थे।
वहाँ काउंसीलिंग हॉल के बाहर अन्य बच्चों और उनके अभिभावकों के साथ हम भी बैठ गए, तभी हमारे कॉलेज पहुंचते ही तेज बारिश होने लगी, और हम दूसरी बारी का इंज़ार करने लगे, लगभग आधे घंटे बाद काउंसीलिंग की दूसरी बारी आयी थी, अब दोपहर के साढ़े बारा बज चुके थे, तभी हॉल का दरवाज़ा खुला अंदर के बच्चे बाहर आने लगे और हॉल के खाली होते ही दरवाज़े पर खड़े चपरासी अंकल ने सब को अंदर आने की अनुमती दी। सब अंदर जाने लगे सब के साथ मैं भी अपने पापा जी का हाथ पकड़ कर हॉल में जा ही रही थी कि तभी वो चपरासी अंकल पापा को अंदर आने से रोकते हुए बोल पड़े, बिटिया कब तक पापा का हाथ पकड़ के चलोगी अब अकेले चलना सीख लो!
ये बात मेरे दिल और दिमाग़ में उसी समय अपना घर कर गयी थी।
और वो अंकल पापा से मेरा हाथ छुड़ा कर मुझे हॉल में ले जाने लगे,मैं सहमी हुईं नज़रों से थोड़ा रुआसी सी होकर पापा जी से आँखों ही आँखों से पूछ बैठी, पापा हम अकेले कैसे करेंगे! और पापा जी ने मेरी आँखों से पूछ गया ये सवाल जैसे समझ गए थे, फिर मुझे ढांढस देते हुए पापा जी बोले जाओ हम हैं ना यहाँ बाहर जो काम हो बताना। मैं फिरभी डरते हुए हॉल के अंदर चली गयी।
मेरे पापा जी के बिना पहेली बार मैं कहीं गयी थी। अंदर मुझसे कोई कुछ पूछ लेता या मुझसे थोड़ा भी ऊँचा कोई बोल देता तो मैं डर कर रोते रोते रुकती थी। 
उस दिन से पहले पापा जी के बिना एक क़दम भी अकेले चलना मेरे लिए दुशवार होता था।
वो एहसास मेरे मन को अक़्सर रौंद कर चला जाता है, वो अंकल की बात जब भी याद आती है मेरे कान में वही शब्द गूंज उठते हैं, और आँखों के सामने वही दृश्य घूम जाता हैं।
मैंने ज़रूर ही पिछले जन्म में कोई बहुत अच्छे कर्म किये होंगे जो दस साल पहले इतनी भयानक दुर्घटना से गुजरने के बाद भी मेरे पापा जी का साया मेरे सर पर बना रहा है।
अब मैं थोड़ा सफ़र पापा जी के बिना इसलिए कर लेती हूँ क्योंकि अब मूझे यक़ीन है कि वो हमेशा
हर जगह, हर वक़्त, प्रत्यक्ष तो हैं ही पर अप्रत्यक्ष रूप में भी हमेशा वो मेरे साथ रहते हैं, गिरने पर मूझे सहारा देने के लिए पीछे मेरे साथ वो भी विचरते रहते हैं।

©Astha Dwivedi कॉउंसलिंग हॉल

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