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भीड़ में खुद को खोता जा रहा, या यूं कहो कि मैं भी भ

भीड़ में खुद को खोता जा रहा,
या यूं कहो कि मैं भी भीड़ होता जा रहा,
जिस ओर सब चल रहे,
मैं भी वहीं बढ़ रहा,
खोता हुआ,
मैं भी खो रहा हूँ,
ख़ुद को नकाबों के साये में,
मैं भी अब एक भीड़ हो रहा,
मैं खो रहा।

यह टिस गहरी होती जा रही,
यह ज़ख्म बढ़ती जा रही,
खून से लथपथ मैं दर्द में कराह रहा,
देखो मैं भी भीड़ में अपना दर्द छिपा रहा,
लेकिन अब भी मेरी आँखों को छिपाने का हाल नही पता,
सिखया बहुतों ने,
फिर भी कोई सीखा नही पाया,
भीड़ में खोते खोते ख़ुद,
बचाया जा रहा,
फिर भी मैं भीड़ में खुद को समाये जा रहा.....

©Prashant Roy
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