रोज़ सुलझा लेती हूं अपने सपनों का ताना बाना और बुन लेती हूं ,रंग बिरंगे ख्वाब... ख्वाब मेरी इच्छाओं और मेरी कल्पनाओं के, जो कहते हैं.. मुझे भी चाहिए,एक मेरा आसमान जिसमे उड़ सकूं,मैं स्वच्छंद और छु पाऊं क्षितिज, या बह निकलूं,तारिणी बन कर, तोड़ सब किनारे कलकल बहती/ बस बहती ही जाऊं... न दबा सके कोई मेरा स्वर । लेकिन ....... चाहने और होने का अंतर पाटना लगता कभी कभी कठिन इसलिए... रोज़ पकाती हूं अपने खावों को खाने के साथ,धूप लगवाती हूं गीले कपड़ों के साथ, चमकाती भी हूं,जूठे बर्तनों के साथ.... अपने हर कलाप में सहेजती हूं .. और बुन लेती हूं,रंग बिरंगे ख्वाब रोज़ सुलझा लेती हूं अपने सपनों का ताना बाना और बुन लेती हूं रंग बिरंगे ख्वाब... ख्वाब मेरी इच्छाओं और मेरी कल्पनाओं के, जो कहते हैं.. मुझे भी चाहिए