मैं जब भी किताब लिखूंगा तो एक बात जरूर लिखूंगा की *प्रेम* अपनी *पराकाष्ठा* पर तब तक रहता है जब तक इजहार न हो, हम जितने वेग से एक-दूसरे के नजदीक आते हैं उतने वेग से दूर नहीं जा सकते, हमें मानसिक रूप से दूर जाने में जमाना लग सकता है हम सहमति के साथ खूबसूरत मोड़ पर रिश्ता खत्म नहीं कर सकते हैं, एक मुकम्मल इश्क को खत्म करने के लिए नफरत की पर्याप्त मात्रा चाहिए ही होगी मुझे अच्छे से यकीन है अगर तुम्हारे बच्चे हिंदी का होमवर्क करते वक्त तुमसे *नफरत का पर्यायवाची* पूछेंगे तो तुम्हें मेरा ख्याल जरूर आएगा @देवेन्द्र दांगी