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“घूंघट में स्त्री” ( चिंतन)

          “घूंघट में स्त्री” ( चिंतन)
                अनुशीर्षक में

 ‘घूंघट में स्त्री’ विषय भारतीय समाज का बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है। स्त्री को शुरू से ही बंधन में बांध कर रखा गया है
फिर भी समय के साथ उसने पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। एक भारतीय नारी जब तक अपने पीहर यानी पिता के घर रहती है तब तक वो हर बंधन से आज़ाद रहती है वही जब विवाह बाद अपने ससुराल पहुंचती हैं उसी दिन से इज्ज़त और संस्कार के नाम पर घूंघट करने को बोल देते हैं क्या सिर्फ घूंघट कर लेने से वो स्त्री अपने से बड़ों का आदर सत्कार करेगी या वो असंस्कारी बहू कहलाएगी। किसी को इज्ज़त और सम्मान अपने मन के हृदय से होता है चाहे वो स्त्री माथे पर अपना पल्लू ली हो या ना ली हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर बेटी है तो मायके में वो क्यों नहीं घूंघट करती है सिर्फ बहू को ही क्यों कहा जाता है? ये समाज किसी स्त्री के पहनावे से उसके चरित्र या व्यवहार का आकलन नहीं कर सकता है। सम्मान और संस्कार स्त्रियां बचपन से  सीखने लगती हैं उस समय उनका पहनावे से कोई लेना देना नहीं होता है। इसलिए बदलते हुए परिवेश समाज को घूंघट प्रथा किसी स्त्री के स्वयं की इच्छा से होनी चाहिए अगर वो चाहे तो करे अगर ना चाहे तो कोई इसको बाध्य ना करे। संस्कृति और संस्कार के नाम पर स्त्री का दोहन बंद करो सिर्फ स्त्री की क्यों इसका बोझ धोए पुरुष की भी जिम्मेदारी बनती है।

“जिन औरतों ने घूंघट में अपनी पूरी जिंदगी बिताई क्या उनके हिस्से में खुला आसमान आता होगा?”
#kkpc21 
#घूंघटमेंस्त्री (चिंतन)
#कोराकाग़ज़ 
#collabwithकोराकाग़ज़
          “घूंघट में स्त्री” ( चिंतन)
                अनुशीर्षक में

 ‘घूंघट में स्त्री’ विषय भारतीय समाज का बहुत ही महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है। स्त्री को शुरू से ही बंधन में बांध कर रखा गया है
फिर भी समय के साथ उसने पुरुषों के साथ कदम से कदम मिला कर सभी क्षेत्रों में अपना परचम लहराया है। एक भारतीय नारी जब तक अपने पीहर यानी पिता के घर रहती है तब तक वो हर बंधन से आज़ाद रहती है वही जब विवाह बाद अपने ससुराल पहुंचती हैं उसी दिन से इज्ज़त और संस्कार के नाम पर घूंघट करने को बोल देते हैं क्या सिर्फ घूंघट कर लेने से वो स्त्री अपने से बड़ों का आदर सत्कार करेगी या वो असंस्कारी बहू कहलाएगी। किसी को इज्ज़त और सम्मान अपने मन के हृदय से होता है चाहे वो स्त्री माथे पर अपना पल्लू ली हो या ना ली हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर बेटी है तो मायके में वो क्यों नहीं घूंघट करती है सिर्फ बहू को ही क्यों कहा जाता है? ये समाज किसी स्त्री के पहनावे से उसके चरित्र या व्यवहार का आकलन नहीं कर सकता है। सम्मान और संस्कार स्त्रियां बचपन से  सीखने लगती हैं उस समय उनका पहनावे से कोई लेना देना नहीं होता है। इसलिए बदलते हुए परिवेश समाज को घूंघट प्रथा किसी स्त्री के स्वयं की इच्छा से होनी चाहिए अगर वो चाहे तो करे अगर ना चाहे तो कोई इसको बाध्य ना करे। संस्कृति और संस्कार के नाम पर स्त्री का दोहन बंद करो सिर्फ स्त्री की क्यों इसका बोझ धोए पुरुष की भी जिम्मेदारी बनती है।

“जिन औरतों ने घूंघट में अपनी पूरी जिंदगी बिताई क्या उनके हिस्से में खुला आसमान आता होगा?”
#kkpc21 
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#कोराकाग़ज़ 
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