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इंसान ही इंसान की इंसानियत कुचल रहा था। हालात और म

इंसान ही इंसान की इंसानियत कुचल रहा था।
हालात और मंजर के भयावह हालात में,
राजनीति में जुर्म का समंदर उछल रहा था।
गुनाहों की डोली एक उतरी न थी कांधे से,
गुनाहगारों के कंधो पर जनाजा निकल रहा था।
लपटें आग की उतनी भयानक नहीं यारों,
देखो इंसान ही इंसान की लपटों में जल रहा था।

©"कुछ अल्फाज आपके साथ" (D.B. Muskan) #Aag 
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