आबले हैं पैरों में सफ़र फिर भी जारी है हमारी हसरतें हमपे किस क़दर भारी हैं तुन्द हवाओं से गुल सब चराग़ हैं रोशनी की जुगनुओं पे ज़िम्मेदारी है आगे जितने मोहरे थे मरे पड़े सब बिसात में अगली मात अब हमारी है महज़ इस्तेमाल होने की चीज़ है अवाम सिआसतदां कोई भी हो एक ही बिरादरी है यूँ तो हादसों का एक ज़खीरा है ज़िंदगी मगर इस ग़ज़ल का फिलहाल मिसरा ये आख़री है 23/3/2