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"भींगती यादें" शहर बनारस और बात ख्याल-ए-इश्क की ,

"भींगती यादें"
शहर बनारस और बात ख्याल-ए-इश्क की , खिड़की से बाहर बारिश पर टिकी निशा की नम नजरें और आंखों से निकलकर पलकों के सहारे गालों को छूते हुए उसके हाथों पर गिरती हुईं वो बेजान बूँदे हाल-ए-दिल को उस पल खामोशी में तब्दील करने के लिए काफी थी ।बारिश जोरदार थी मगर इसका असर निशा के कानों पर जरा सा भी नहीं था । पलकें झपकने का नाम नहीं ले रही थी और बूंदें कहूं या अश्क ,जो भी हो पर थम नहीं रहा था  । उसकी उँगलियाँ प्रेम के पहनाये हुए लॉकेट को इस कदर खींच रही थी कि मानो उस पल की सारी बौखलाहट और बेचैनी का जिम्मेदार वही हो । एक अरसा बीत चुका था दोनों की बात हुए बिना और हिस्से में मिली यादों के सहारे इसी तरह वो इश्क आज भी ज़िंदा था । मुस्कुराहट फ़ीकी पड़ चुकी थी , ख्वाहिशों दम तोड़ चुकी थीं पर कुछेक यादें आज भी हल्की सी नम मिलावट वाली मुस्कान बीच-बीच में ला ही देती थी ।बनारस की गलियाँ आज बारिश के पानी में और निशा ,प्रेम के साथ गुजारे इश्क के लम्हों को दोहराते हुए अश्कों के पानी में डूब चुके थे । तभी माँ की जोरदार आवाज निशा के ख्यालों को चीरते हुए उसे होश में ला देती हैं ,आंशू सोखकर खिड़कियों को काँपते हुए हाथों से बंद कर निशा की खामोश जुबान आखिर बोल ही पड़ती है -"जी माँ आई, बस बारिश देख रही थी..  
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"भींगती यादें"
शहर बनारस और बात ख्याल-ए-इश्क की , खिड़की से बाहर बारिश पर टिकी निशा की नम नजरें और आंखों से निकलकर पलकों के सहारे गालों को छूते हुए उसके हाथों पर गिरती हुईं वो बेजान बूँदे हाल-ए-दिल को उस पल खामोशी में तब्दील करने के लिए काफी थी ।बारिश जोरदार थी मगर इसका असर निशा के कानों पर जरा सा भी नहीं था । पलकें झपकने का नाम नहीं ले रही थी और बूंदें कहूं या अश्क ,जो भी हो पर थम नहीं रहा था  । उसकी उँगलियाँ प्रेम के पहनाये हुए लॉकेट को इस कदर खींच रही थी कि मानो उस पल की सारी बौखलाहट और बेचैनी का जिम्मेदार वही हो । एक अरसा बीत चुका था दोनों की बात हुए बिना और हिस्से में मिली यादों के सहारे इसी तरह वो इश्क आज भी ज़िंदा था । मुस्कुराहट फ़ीकी पड़ चुकी थी , ख्वाहिशों दम तोड़ चुकी थीं पर कुछेक यादें आज भी हल्की सी नम मिलावट वाली मुस्कान बीच-बीच में ला ही देती थी ।बनारस की गलियाँ आज बारिश के पानी में और निशा ,प्रेम के साथ गुजारे इश्क के लम्हों को दोहराते हुए अश्कों के पानी में डूब चुके थे । तभी माँ की जोरदार आवाज निशा के ख्यालों को चीरते हुए उसे होश में ला देती हैं ,आंशू सोखकर खिड़कियों को काँपते हुए हाथों से बंद कर निशा की खामोश जुबान आखिर बोल ही पड़ती है -"जी माँ आई, बस बारिश देख रही थी..  
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