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कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया

कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया 

मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझ को मार दिया 

इक सब्ज़ शाख़ गुलाब की था इक दुनिया अपने ख़्वाब की था 

वो एक बहार जो आई नहीं उस के लिए सब कुछ हार दिया 

ये सजा-सजाया घर साथी मिरी ज़ात नहीं मिरा हाल नहीं 

ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया 

मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं 

मैं ने किन लोगों से नफ़रत की और किन लोगों को प्यार दिया 

वो इश्क़ बहुत मुश्किल था मगर आसान न था यूँ जीना भी 

उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ़ दिया पिंदार दिया 

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ 

उन लोगों पर जिन लोगों ने मिरे लोगों को आज़ार दिया 

मिरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंकों ने 

मैं ख़ुश्क पेड़ ख़िज़ाँ का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया

©Mohd Arsh malik ubaidullah aleem Poet

#Journey
कुछ इश्क़ था कुछ मजबूरी थी सो मैं ने जीवन वार दिया 

मैं कैसा ज़िंदा आदमी था इक शख़्स ने मुझ को मार दिया 

इक सब्ज़ शाख़ गुलाब की था इक दुनिया अपने ख़्वाब की था 

वो एक बहार जो आई नहीं उस के लिए सब कुछ हार दिया 

ये सजा-सजाया घर साथी मिरी ज़ात नहीं मिरा हाल नहीं 

ऐ काश कभी तुम जान सको जो इस सुख ने आज़ार दिया 

मैं खुली हुई इक सच्चाई मुझे जानने वाले जानते हैं 

मैं ने किन लोगों से नफ़रत की और किन लोगों को प्यार दिया 

वो इश्क़ बहुत मुश्किल था मगर आसान न था यूँ जीना भी 

उस इश्क़ ने ज़िंदा रहने का मुझे ज़र्फ़ दिया पिंदार दिया 

मैं रोता हूँ और आसमान से तारे टूटते देखता हूँ 

उन लोगों पर जिन लोगों ने मिरे लोगों को आज़ार दिया 

मिरे बच्चों को अल्लाह रखे इन ताज़ा हवा के झोंकों ने 

मैं ख़ुश्क पेड़ ख़िज़ाँ का था मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया

©Mohd Arsh malik ubaidullah aleem Poet

#Journey