जो तय करती है जन्म से मरण वो मिट्टी ही तो है। वो काया जिसपे इतराता है मन उस वदन का आवरण वो मिट्टी ही तो है। भरकर सांस उसमें आत्मा जब रचती है नया जीवन कल राख बन उसे फिर से निर्मित करती वो जिंदा गर्भ वो मिट्टी ही तो है। भुख को अपना सीना चीर हल की वेदना सह अंकुरण को ईकदिन भोजन बना ऐ मानव! तुम्हें पालती वो मिट्टी ही तो है। जो तय करती है जन्म से मरण वो मिट्टी ही तो है। वो काया जिसपे इतराता है मन उस वदन का आवरण वो मिट्टी ही तो है।