वो चौराहे पे क़लम बेच रही थी दो रुपए में वो शर्म बेच रही थी धूप में जलना नज़रों का घूरना छुपा के ग़म वो दम बेच रही थी आँचल से अपने धूल से बचना दर्द का अपने मरहम बेच रही थी ख़्वाब अपना सब जैसे भुलाए रब्बा तुम्हारा सितम बेच रही थी पढ़-लिख के भी अनपढ़ दुनिया अल्हड़ सी बेटी इल्म बेच रही थी Laughing_soul