#OpenPoetry अरावनी है क्यों इतना भेद भाव, क्यों हैं इतनी घृणा, इतनी सी ही तो बात थी, क्या मेरा हक़ नही था जीना..?? लिंग भेद की मारी थी, समाज ने . क्यों तिरस्कार किया, ना नर थी, ना थी मैं नारी, क्यों मैंने ये भाग्य स्वीकार किया..?? ना जीने का हक़ दिया, ना फ़क्र का रुतबा, घुटन भरी हयात दे, छीन ली मनमर्ज़ीयाँ | घर अगर आई खुशियां, तो न्योता दे बुलाते हो, गर कभी मिल गए राह में, तो नज़र हम ही से चुराते हो, यही विडंबना हमारे समाज की, काम से पुचकारते हो, हो गया काम जो बुरी तरह दुत्कारते हो| अधिक की चाह नही, तनिक की अभिलाषा है, बस बनानी अपनी एक नई परिभाषा है| मान चाहती हूँ, सम्मान चाहती हूं, जीने का वरदान चाहती हूं, ना नर हूँ, ना नारी हूँ, अरावन की पुजारी हूँ, मैं कोई दानव नहीं, ना ही कोई चुड़ैल हूँ, तुम जैसे ही इंसान, है थोड़ी अलग हूँ, किन्नर हूँ, लेकिन मैं भी तो एक जान हूँ| #OpenPoetry अरावनी यानि किन्नर जो आज भी इस चकाचौन्ध भरी दुनिया मे अछूती है| समाज मे अपनी पहचान बनाने को उत्सुक ये सही राह और सम्मान चाहती है|