तुम्है मैंने आह:|सरव्यतीत रुपों में किया है याद सदां प्रणों में सुनता रहा हूँ तुम्हारा संवाद बिना पूछे सिद्धी कब ?इस इष्ट से होगा कहां साक्षात? कौनसी वह प्रात:ज़िसमे खिल उठेगी क्लिन्न सूनी शिशिर भीगी रात? यह दीप अकेला स्नेह भरा है गर्व भरा मदमाता पर इसको भी पंक्ती को देदो| प्यार है अभिशाप तुम कहां हो नारी ?वासना के पंक सी फैली हूई थी .....धारयित्ती सत्य सी निर्लज्ज नंगी और समर्पित | ज़िस बाती का तुम्है भरोसा वही जलेगी सदां अकंपित उज्वल एकरुप निर्धुम | 2010/011 हिंदी साहित्य को पढ़ने का मन हुआ था तब ये कुछ रचनाएं "अज्ञेय" महादेवी वर्मा और जो भी सिलेबस में थे लिख ली थी आज मेरी डायरी में मुझे मिली आपके साथ साझा कर रहा हूँ।