तेरे जैसा यार कहाँ मित्र यानि दोस्त बचपन की दोस्ती छल कपट के प्रपंच से दूर और जैसे जैसे हम बड़े होते है दोस्ती के मायने धीरे धीरे विलुप्त होती जाती है। वो युग और था जब मित्रता मे निच्छल भक्ति हुआ करती थी। निर्धन की मित्रता मे भी कोई द्वेष नहीं होता था। जैसे उदाहरण राम केवट की मित्रता और कृष्ण सुदामा की मित्रता। जहां पर मित्रों से लेने की अपेक्षा हो जाती है, वहां मित्रता नहीं व्यापार हो जाता है और यहीं से मित्रता मे जलन की भावना आ जाती है, एक दूसरे मे प्रतिस्पर्धा बढने लगती है, और कब दोस्ती दुश्मनी मे परिवर्तित हो जाती है पता ही नहीं चलता। आज अगर आवश्यकता है तो अपने अन्दर झांकने की कि हम मित्र बनने लायक हैं या नहीं। मित्र की परीक्षा कभी नहीं होती वो तो स्वयं समय के साथ हो जाती है। ऐसा मेरा अपना मानना है कुछ लोग मेरे विचारों से सहमत नहीं हो सकते। लेकिन आज के महौल में सिर्फ मतलब की दोस्ती रह गई है। अब वो बचपन वाली दोस्ती को लोग बचपना कहकर भूलने लगते हैं, जबकि वही दोस्ती सच्ची दोस्ती होती है। ✍ लक्ष्मीनरेश ✍ #तेरे_जैसा_यार_कहाँ #चंचलमन